इस दुनिया में सबसे अनमोल शब्द है दोस्ती और दिल
के सर्वाधिक करीब शब्द रहता है दोस्ती. इन दोनों शब्दों की महत्ता को वही जान-समझ
सकता है जिसने इनको अपने जीवन में स्वयं में उतार रखा हो. ऐसा नहीं हो सकता कि
किसी व्यक्ति को दोस्त और दोस्ती की सम्पदा मिलती रहे और वह किसी और के लिए इस
सम्पदा को छिपाए रहे. इस खजाने को पाने के साथ-साथ इसे लुटाना भी पड़ता है.
व्यक्तिगत रूप से हमारा मानना यही है कि दोस्ती एक ऐसा रिश्ता है जो किसी तरह की
शब्दावली से बँधा नहीं होता है, किसी भी तरह की औपचारिकता का
पालन नहीं करता है, किसी भी तरह से स्वार्थी भाव नहीं रखता
है. बहुत सारे परिचितों के बीच दोस्तों जैसी शब्दावली हमारे साथ भी है.
कुछ मित्र ऐसे हैं जो बचपन से अभी तक साथ हैं.
प्राथमिक विद्यालय में पढ़ाई के समय जो गठबंधन हुआ वह आज तक निष्काम चला आ रहा है.
कुछ मित्रों से माध्यमिक शिक्षा और उच्च शिक्षा के दौरान मेल-मिलाप हुआ. दोस्ती के
नाम पर यहाँ भी जबरदस्त जोड़ आज तक अपना काम कर रहा है. कुछ मित्र ऐसे भी हैं जिनके
साथ किसी कक्षा का, किसी शैक्षणिक संस्थान का साथ न था. उनके
साथ जैसे दिल का रिश्ता पहले से बना हुआ था, बस मिलने की देर थी. उनके मिलते ही एक
पल में दोस्ती का पावन रिश्ता परवान चढ़ने लगा. कुछ मित्र कार्यक्षेत्र के समय मिले,
कुछ ने सोशल मीडिया के द्वारा जीवन में अपना स्थान जमाया. दोस्त बने तो फिर बाकी
सारी बातें पीछे रह गईं.
इधर एक घटना सामने आई तो एक बहुत पुराना
घटनाक्रम याद आ गया. ज्यादातर तो ऐसी बातें हम अपने दिमाग से निकाल देते हैं मगर
अक्सर उसी से मिलता-जुलता कुछ दिखाई देने पर बातें याद आ जाती हैं. ये शायद सन 2007 की बात होगी, उस समय हम उरई के गांधी महाविद्यालय
में मानदेय प्रवक्ता के रूप में कार्यरत थे. कॉलेज आने-जाने के क्रम में, शाम को बाजार घूमने की अपनी आदत में अपने बहुत से मित्रों से मुलाक़ात हो
जाया करती थी. वो दौर हमारे व्यक्तिगत के लिए बहुत बुरा चल रहा था, ऐसे में मित्रों का मिलना, उनके साथ फिर पुराने
दिनों को याद करना दिल-दिमाग को तरोताजा कर देता था. इसी सबके बीच एक दिन हमारे
बचपन के एक दोस्त का घर आना हुआ. उससे भी नियमित रूप में मिलना-जुलना होता रहता
था.
जैसी कि आमतौर पर मुलाकात होती थी, उसी तरह की मुलाकात उस दिन भी हुई. जैसा कि पहले भी कहा कि दोस्ती किसी
भी तरह के संकोच, किसी भी तरह की औपचारिकता से मुक्त होती है, उसी भाव से उस दोस्त ने कहा कि इतने रुपये दो. रुपये माँगने में उसके
अधिकार भाव को देखकर अच्छा लगा. हमें किसी भी रिश्ते का निःसंकोच भाव सदैव आकर्षित
करता रहा है, फिर यह तो दोस्त था और वो दोस्त जो बचपन से लगातार साथ था. उस दोस्त
की पारिवारिक आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी, उसका अपना
छोटा सा काम भी बहुत सुखद स्थिति में नहीं चल रहा था. बहरहाल, चाय-पानी के, गप्पबाजी के दौर के बीच उसकी
आवश्यकतानुसार पैसे उसको दे दिए. इसके बाद भी उसका मिलना होता रहा, गपशप ज्यों की त्यों चलती रही न उसने उन पैसों का जिक्र किया और हमारे
करने का कोई सवाल ही नहीं उठता था.
उस घटना के बाद चार-छह महीने बाद उसने फिर कुछ
रुपयों की साधिकार माँग रखी. इसके बाद भी तीन-चार बार और ऐसा उसके द्वारा किया
गया. हाँ, यहाँ आप सबको एक जानकारी और दे दें कि उसकी
साधिकार माँग में धन की कीमत हर बार एक हजार रुपये से कम ही रही. एक दोपहर घर पर
उसका आना हुआ. हम कॉलेज से लौटते ही जा रहे थे. उसके चेहरे का रंग एकदम से उड़ा हुआ
था. ऐसा लग रहा था जैसे कोई अनहोनी सी हो गई. उसके हालचाल पूछ पाते इससे पहले वह
हमारी दोनों हथेलियों को पकड़ कर रो दिया. हमारी समझ से सबकुछ बाहर था. उससे कारण
पूछा तो वह बोला कुछ नहीं, बस फूट-फूट कर रोता रहा. इतना तो
समझ आ गया था कि कुछ भावनात्मक बात है, सो हमने भी उसके भीतर
का गुबार निकल जाने दिया. कुछ मिनट के बाद वह शांत हुआ. पानी के कुछ घूँट पीने के
बाद उसके बोल निकले. उसे सुनकर एकदम से हमें भी झटका लगा. उसके सबसे पहले शब्द थे, यार हमें माफ़ कर देना.
इनको सुनकर कुछ समझ न आया. क्या बकवास कर रहे हो, पगला गए हो का? कहते हुए उसे टोका तो उसने एकदम
बुझे स्वर में कहा, नहीं यार, हम तुमसे
कितनी बार पैसे माँग ले गए. हमें आज ही पता चला कि अभी तुमको बहुत कम तनख्वाह
मिलती है. तुम्हारी इस स्थिति में हमें तुम्हारी सहायता करनी चाहिए थी और हम तुमसे
ही पैसे लेते रहे. उसको बोलने से रोका तो वह हमें टोकते हुए बोला, हम तो समझते थे कि तुम्हारी नौकरी डिग्री कॉलेज में लग गई है तो पचास-साठ
हजार तो मिलते ही होंगे. बस यही सोचकर हम तुमसे बिना संकोच के माँग लेते थे. हमें
लगा जैसे उसको ये पता चलना कि मानदेय पर पचास-साठ हजार रुपये नहीं मिलते हैं, उसका चंद सैकड़ा रुपये माँगना शर्मिंदा कर रहा है,
हमें अपने आपमें अपराधबोध सा लगने लगा. जैसी कि निपट घनघोर दोस्तों के साथ जिस तरह
की शब्दावली इस्तेमाल होती है, वही करते हुए उससे कहा कि आज
ये बकवास कर दी सो कर दी, आगे से करी तो जूते खाओगे. आज न
सही पचास-साठ हजार रुपये पर तुम सब दोस्तों के कारण ये पचास-साठ लाख हैं हमारे
लिए.
इसके बाद चाय-पानी, गपशप
बहुत थोड़ी देर चली मगर दोस्ती आज तक चल रही है. उसके बाद भी उसके अधिकार जमाने
वाले तीन-चार मौके आये. धीरे-धीरे समय के साथ उसकी स्थिति भी सही होती रही, हमारी भी
स्थिति सही होती रही. मानदेय प्रवक्ता के समय मिलते अत्यल्प मानदेय से निकल कर
समान कार्य समान वेतन में कुछ वेतन जैसा बारह महीने पाने लगे. कालांतर में सरकारी
दयादृष्टि ने हमें भी असिस्टेंट प्रोफ़ेसर बना दिया. इसके बाद भी हम दोनों जब भी
मिलते हैं तो बस बचपन वाले स्कूल की, उसी समय के साथियों की, उस समय की शरारतों की ही बातें होती हैं.
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