देश के लिए भाषाई स्तर पर हाल की दो घटनाएँ
निश्चित ही आह्लादकारी रही हैं. इनमें पहली घटना हिन्दीभाषी उपन्यास को बुकर
पुरस्कार मिलना तथा दूसरी घटना संयुक्त राष्ट्र द्वारा अपनी भाषाओं में हिन्दी
भाषा को शामिल करना रहा है. यह
संयोग ही नहीं है कि एक तरफ भारत सरकार ने नई शिक्षा नीति में भारतीय भाषाओं, कला, संस्कृति के संवर्द्धन हेतु विशेष प्रावधान
किये हैं और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय भाषा को एक अलग पहचान मिलनी भी दिखने
लगी है.
राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भारतीय भाषाओं, कला और संस्कृति के सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से लिखा गया है कि ‘भारत की
इस सांस्कृतिक सम्पदा का संरक्षण, संवर्धन एवं प्रसार देश की
उच्चतम प्राथमिकता होनी चाहिए क्योंकि यह देश की पहचान के साथ-साथ अर्थव्यवस्था के
लिए भी महत्वपूर्ण है. भारत में भ्रमण, भारतीय अतिथि सत्कार
का अनुभव लेना, भारत के खूबसूरत हस्तशिल्प एवं हाथ से बने
कपड़ों को खरीदना, भारत के प्राचीन साहित्य को पढ़ना, योग एवं ध्यान का अभ्यास करना, भारतीय दर्शनशस्त्र
से प्रेरित होना, भारत के अनुपम त्योहारों में भाग लेना, भारत के वैविध्यपूर्ण संगीत एवं कला की सराहना करना और भारतीय फिल्मों को
देखना आदि ऐसे कुछ आयाम हैं जिनके माध्यम से दुनिया भर के करोड़ों लोग प्रतिदिन इस
सांस्कृतिक विरासत में सम्मिलित होते हैं, इसका आनंद उठाते
हैं और लाभ प्राप्त करते हैं.’ कला, संस्कृति की यह विशालता निश्चित रूप से भाषा
के साथ जुड़ती है. भाषा के माध्यम से ही किसी भी देश की संस्कृति, कला आदि से परिचय होता है, उसके साथ समन्वय बनता
है. एक संस्कृति का दूसरी संस्कृति के नागरिकों संग बातचीत करना, एक देश का दूसरे देश के साथ तालमेल बैठाना, अपने अनुभवों को दूसरों से
साझा करना आदि भाषा से ही संचालित होता है. यदि कहा जाये कि संस्कृति हमारी भाषाओं
में समाहित है तो यह अतिश्योक्ति न होगी.
राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भारतीय भाषाओं के
प्रति सजगता का एक बहुत बड़ा कारण है कि भारतीय भाषाओं के प्रति समुचित ध्यान नहीं
दिया गया है. उनके संवर्द्धन, संरक्षण के प्रति भी सकारात्मक
एवं ठोस कदम नहीं उठाये गए हैं. इस नकारात्मक वृत्ति का दुष्परिणाम यह रहा है कि
विगत पचास वर्षों की कालावधि में देश ने अपनी दो सौ से अधिक भाषाओं को खो दिया है.
यूनेस्को ने भी 197 भारतीय
भाषाओं को लुप्तप्राय की श्रेणी में शामिल किया है. यह स्थिति किसी भी देश की
भाषाई संस्कृति के लिए सुखद तो कदापि नहीं कही जाएगी. भारतीय भाषाओं की इसी दशा को
देखते हुए शिक्षा नीति में प्रावधान किया गया है कि स्कूली स्तर पर ही कला, संगीत, हस्तकौशल पर विशेष
ध्यान देते हुए शिक्षा का माध्यम मातृभाषा अथवा स्थानीय भाषा बनाया जाये. मातृभाषा
अथवा स्थानीय भाषा में प्राथमिक शिक्षा को दिए जाने के पीछे भी सरकार की मंशा यही
है कि कम से कम स्कूली शिक्षा, अध्ययन के माध्यम
से ही मातृभाषा, स्थानीय भाषाओं का संरक्षण, संवर्द्धन हो सकेगा.
भाषा को लेकर यहाँ
के नागरिकों में अनेक प्रकार के भ्रम फैले हुए हैं. शिक्षा क्षेत्र में ऐसे लोगों
का विचार है कि विज्ञान विषयों का अध्ययन मातृभाषा में किया जाना सहज, संभव नहीं
है. इसके लिए ऐसे राज्यों अथवा शिक्षण संस्थानों द्वारा अंग्रेजी को वरीयता दी
जाती है. उनका मानना है कि उच्च माध्यमिक स्तर पर विज्ञान विषयों को अंग्रेजी
माध्यम में ही पढ़ाना श्रेयस्कर है. इस बारे में देश के पूर्व राष्ट्रपति डॉ.
अब्दुल कलाम से सीख लेने की आवश्यकता है. यह सुनकर भाषाई विभेद करने वाले लोगों को
आश्चर्य होगा कि डॉ. कलाम ने बारहवीं तक की सम्पूर्ण शिक्षा, जिसमें विज्ञान विषय भी शामिल हैं, अपनी मातृभाषा तमिल में ली थी.
शिक्षा नीति
में बहुभाषिक व्यवस्था को लागू करते हुए त्रिभाषा फार्मूला का यथाशीघ्र
क्रियान्वयन किये जाने पर बल दिया गया है. त्रिभाषा फार्मूला के पीछे की भावना यही
है कि हिन्दीभाषी राज्यों के विद्यार्थी दक्षिण अथवा अन्य राज्यों की एक भाषा
सीखें, इसी तरह अहिन्दीभाषी राज्यों के विद्यार्थी हिन्दी सीखें. ऐसा करने से देश
के विभिन्न राज्यों में फैली भाषाई कटुता को दूर करने में सहायता मिलेगी.
राष्ट्रीय शिक्षा नीति में इस प्रकार की व्यवस्था भी की गई है जिसके अंतर्गत
भारतीय भाषाओं के शिक्षण को बढ़ावा देने हेतु राज्य परस्पर अनुबंध कर भाषा शिक्षकों
का आदान-प्रदान कर सकते हैं. त्रिभाषा
फार्मूला में संस्कृत भाषा को भी मुख्य धारा में शामिल करने के लिए इसे उच्चतर
शिक्षा तक अपनाये जाने की व्यवस्था की गई है. इसे एक पृथक विषय के पढ़ाने से ज्यादा
रुचिपूर्ण एवं नवाचारी तरीकों से जोड़ने का सकारात्मक कदम उठाया गया है. गणित, खगोलशास्त्र, योग आदि सहित अन्य समकालीन विषयों को संस्कृत के साथ जोड़कर संस्कृत
विश्वविद्यालयों और अन्य उच्चतर शिक्षण संस्थानों को बहु-विषयक संस्थानों के रूप
में विकसित करने का मार्ग प्रशस्त किया गया है.
इन प्रावधानों
के साथ ही शिक्षा नीति में अनुवाद को लेकर बहुत ही गंभीरता दिखाई गई है. अभी तक
अनुवाद को मौलिक कार्य तो स्वीकारा ही नहीं जाता रहा है, इससे भी दुखद स्थिति यह रही है कि अनुवाद को दोयम दर्जे का माना जाता रहा
है. इस दिशा में न तो बहुत ज्यादा कार्य हुआ हुआ है और न ही अनुवाद कार्य को
प्रोत्साहित किया गया है. ऐसी स्थिति होने के कारण ज्ञान, विज्ञान, संस्कृति, इतिहास आदि विषयों के प्रसार का क्षेत्र संकुचित रह जाता है. किसी भी विषय
का यदि उसी क्षेत्र की स्थानीय भाषा में अनुवाद करा दिया जाये तो उस ज्ञान से, उस विषय से सभी क्षेत्रों के नागरिक परिचित हो
सकते हैं. यदि वैश्विक स्तर पर कोई ज्ञानवर्द्धक पुस्तक किसी भी भाषा में छपती है और
यदि भारतीय भाषाओं में उसका अनुवाद उपलब्ध हो जाये तो निश्चित ही देश के नागरिक, विद्यार्थी वैश्विक साहित्य का लाभ अपनी भाषा
में ले सकेंगे. राष्ट्रीय शिक्षा नीति में राष्ट्रीय अनुवाद संस्थान की स्थापना
तथा अनुवाद के उच्च गुणवत्ता वाले पाठ्यक्रम चलाने का प्रावधन किया जाना दर्शाता
है कि भाषा विकास हेतु सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाया गया है.
कहा जा सकता है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति में
भारत के विभिन्न भाषाओं, बोलियों, कला
एवं संस्कृति के संवर्धन हेतु पर्याप्त प्रावधान किये गये हैं. यदि इन सभी
प्रावधानों का शतप्रतिशत क्रियान्वयन हो गया तो भारतीय सनातन संस्कृति अपने
गौरवशाली अतीत को पुनः प्राप्त कर भारत को विश्व के अग्रिम पंक्ति के देशों में
स्थापित करने में सफल होगी. यहाँ हम सभी को स्मरण रखना होगा कि यदि नागरिकों में
अपनी ही भाषा के प्रति स्वाभिमान नहीं होगा तो उनको विश्व में कहीं सम्मान नहीं
मिल सकेगा.
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