कितना कुछ ऐसा
देखा है, एहसास किया है हमारे समय की पीढ़ी ने. इस
पीढ़ी को जानने के लिए इक्कीसवीं सदी के पहले जाना पड़ेगा. यह वो पीढ़ी है जो
सत्तर-अस्सी के दशक में जन्म लेकर तमाम सारे बदलावों की साक्षी बनने के लिए आगे बढ़
रही थी. आज की पीढ़ी को मोबाइल, कम्प्यूटर आदि से
चिपके देखते हैं तो अनायास ही पुराने दिन याद आ जाते हैं. उन दिनों के याद आने का
कारण आज की पीढ़ी का इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों से निरंतर चिपके रहना नहीं है. उन दिनों
को याद आने के पीछे तत्कालीन सामाजिकता, व्यावहारिकता,
पारिवारिकता आदि भी प्रमुख है. सामूहिक रूप से खेलना, खुले मैदानों में बचपन का गुजरना एक अलग स्थिति तो है ही, उससे बड़ी और प्रमुख बात है उन दिनों में आपस में
अपनत्व होना, समन्वय होना.
अपने बचपन के
वे दिन कभी नहीं भूलते जबकि गर्मियों की रातें छत पर गुजरती थीं. शाम से ही छतों
को पानी से नहलाने का काम बच्चों के कंधों पर आ जाता. सबकी अपनी-अपनी जगह
निर्धारित हो जाती. रात की ठंडक के आते ही मोहल्ले भर की छतें गुलजार हो उठती थीं.
यदि लाइट की कृपा रही तो पीले-पीले बल्बों की रौशनी में सबके घर चमकते न तो कहीं
लालटेन की, कहीं ढिबरी की मद्धिम रौशनी बिखरती
रहती. इसी रौशनी में सबकी छतों पर भोजन करने का लगभग सामूहिक कार्यक्रम शुरू हो
जाता. किसी छत से आवाज़ आती चटनी ले जाने के लिए, कोई आवाज़ देता आम का पना पहुँचाने के लिए. किसी चाची के हाथ का अचार सबको
ललचाता था तो किसी की छौंक लगी दाल से मुँह में पानी आ जाता. ये किसी एक दिन की
बात नहीं होती बल्कि रोज का ही काम होता था. खाद्य सामग्री बिना किसी भेदभाव के, बिना किसी जातिगत भावना के छतों-छतों
घूमती-टहलती अपना स्वाद बाँटती रहती.
ऐसी स्थिति आज
नहीं दिखती. आज छतों पर सोने का, टहलने का जैसे
रिवाज ही नहीं रह गया. सुबह हों या शाम या फिर रात, छतों पर टहलते लोग, शरारत करते बच्चे दिखाई ही नहीं पड़ते.
लाइट आये या न आये, लोग घरों में ही घुसे रहना पसंद करने
लगे हैं. बच्चों के पास स्कूल के काम उन दिनों भी हुआ करते थे मगर आज के जैसा बोझ नहीं
हुआ करता था. उन दिनों हमारे सिर पर अधिक से अधिक नंबर लाने का, अपने ही मित्र से ज्यादा नंबर लाने का, कक्षा में ही नहीं बल्कि पूरे शहर में टॉप करने
का दवाब नहीं हुआ करता था. इस कारण से हमारी पीढ़ी ने उस समय को भी खुलकर जिया है
और आज भी उसी मस्ती में जिए जा रही है. उन दिनों में संसाधन सीमित हुआ करते थे मगर
वे अपार खुशियाँ देते थे. तब हम बच्चे लोग अकेले-अकेले किसी खेल में मगन नहीं रहा
करते थे. कई-कई बच्चों के गुट बने होते थे, जो बस मौका निकालने का इंतजार करते थे. खेलों के अपने ही नियम हुआ करते थे, खेलों के कोई मानक उपकरण नहीं हुआ करते थे. कपड़े
धोने वाली मुगरी क्रिकेट का बैट बन जाया करती थी तो लुगदी कपड़ों पर साईकिल ट्यूब
की रबड़ से गेंद बन जाया करती थी. बाँस के टुकड़े हॉकी का रूप ले लिया करते थे तो कई
बार हार्ड बोर्ड के टुकड़े, कॉपियों की दफ्ती बैडमिंटन के रैकेट का
काम किया करती थी.
वे दिन, बचपन के वे सुहाने दिन हमारी पीढ़ी के लिए तो लौट
कर आने ही नहीं हैं. जो पीढ़ी वर्तमान में अपने बचपन में है, उसके सहारे भी हमारी पीढ़ी अपने बचपन को नहीं जी
सकती. आव की स्थितियाँ बहुत अलग हैं, ऐसे में पुराने
दिनों को उन पर थोपा नहीं जा सकता मगर बहुत हद तक उन दिनों का कुछ स्वरूप बनाया जा
सकता है. इसके लिए पुरानी पीढ़ी यदि कोई कदम भी उठाती है तो आज की तेज भागती पीढ़ी
को वे सब काम, वे सब कदम, वे सब बातें बोरिंग लगती हैं, पुरातन काल की
लगती हैं, उनको पिछड़ा सिद्ध करती हैं. फ़िलहाल तो
हम अपने उन्हीं दिनों को याद करते हुए वर्तमान को उसी रौ में जी रहे हैं.
वाह वाह! सुंदर अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंयादों के सुंदर परिदृश्य के साथ नई पीढ़ी को मार्गदर्शित करता चिंतनपूर्ण आलेख ।
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है।
वाह.....
जवाब देंहटाएं