आज बुन्देलखण्ड
विश्वविद्यालय, झाँसी के अंतर्गत आने वाले तमाम
महाविद्यालयों में परास्नातक स्तर के विद्यार्थियों की मौखिकी परीक्षा सम्पन्न
हुई. परास्नातक अंतिम वर्ष के विद्यार्थियों की सामान्य परख ही इस मौखिकी परीक्षा
में होने की, करने की सम्भावना बनती है. उनके ज्ञान
से ज्यादा उनके प्रस्तुतीकरण को जाँचने का प्रयास किया जाता है. अपने अध्यापन के
लम्बे समय में इस परीक्षा के दौरान विद्यार्थियों के ज्ञान में तो गिरावट देखने को
मिली ही है, यह भी देखने को मिला है कि उनमें
सामान्य शिष्टाचार भी जैसे समाप्त होता जा रहा है. मौखिकी परीक्षा के लिए आना, परीक्षकों के समक्ष अभिवादन, शिष्ट आचरण आदि जैसे कहीं लोप हो चुके हैं. ऐसा
लगता है जैसे वे लोग अध्यापकों पर, परीक्षकों पर, महाविद्यालय पर किसी तरह का एहसान करने के लिए
आये हुए हैं.
कुछ साल पहले
तक मौखिकी परीक्षा को रोक दिया गया था. हमें व्यक्तिगत स्तर पर वह निर्णय अत्यंत
सुखद लगा था. ऐसा इसलिए क्योंकि विद्यार्थियों की एक बड़ी संख्या में एक बहुत सी
छोटी संख्या होती है जो परीक्षकों को संतुष्ट करने का कार्य करती है, उनके पूछे प्रश्नों के सही उत्तर देती है.
बहुतायत में तो स्थिति यह होती ही कि उनको हिन्दी साहित्य का काल-विभाजन भी नहीं पता, कालखंड अनुसार साहित्यकारों के नाम की जानकारी
नहीं. इस पर भी विद्रूपता यह कि ऐसे विद्यार्थियों को भी अंक देना परीक्षकों की
मजबूरी होती है. एक-एक विद्यार्थी के लिए कई-कई फोन, कई-कई सिफारिशें मेज पर अपनी उपस्थिति दर्शाती हैं.
विश्वविद्यालय
स्तर पर बनी अनेक कमेटियों में मित्रों, परिचित सदस्यों से
अनेक बार कहा भी है कि इस तरह की अनावश्यक व्यवस्था को बंद किया जाये या फिर इसे
इस तरह से डिजाइन किया जाये कि विद्यार्थी इसके प्रति सक्रियता दिखाए. अपने ज्ञान
को बढाए. जब तक इस मौखिकी परीक्षा में कोई ढाँचागत सुधार नहीं किया जायेगा तब तक
सामने चुप्पी लगाये बैठे विद्यार्थी को भी उसके साथ चलकर आई सिफारिश के आधार पर
अंक देने होंगे. उनको उत्तीर्ण करना होगा. यह सब शायद इसलिए भी सहज रूप में
स्वीकार्य है क्योंकि हम सभी को भली-भांति जानकारी है कि वर्तमान दौर में परास्नातक
करने के बाद भी किसी बच्चे का भविष्य निर्माण नहीं होने वाला.
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