होली का आना ख़ामोशी के साथ हुआ और उसी ख़ामोशी से
उसका चले जाना भी हो गया. यदि कहें कि होली घर के भीतर आई नहीं बल्कि बाहर से ही
मिलकर लौट गई तो यह भी गलत नहीं होगा. न हंगामा, न बच्चों का
हुडदंग, न शोर-शराबा, न मस्ती-धमाल, बस
जरा-जरा से होंठ फैलाते हुए होली की शुभकामनाओं का आदान-प्रदान और बस चुटकी भर
गुलाल से ही माथे पर टीका लगा दिया. यदि आपस में बहुत ज्यादा घनिष्टता दिखी तो
माथे पर लगाये जाने के बाद शेष बचे उसी चुटकी भर गुलाल को गालों पर भी छू सा दिया.
बस, हो गई होली. ये होली किसी बड़े-बुजुर्ग की नहीं, किसी उम्रदराज की नहीं बल्कि युवाओं की, बच्चों की
भी होली कुछ इसी तरह से निकल रही है.
अब कुछ साल पहले तक होने वाली धमाल होली देखने
को नहीं मिल रही है. घर में भी बच्चे ऐसे बच-बच के होली खेलते हैं कि कहीं वे पानी
में गल न जाएँ, कहीं रंग न काट लें. घर में घुसे बैठे रहकर
मोबाइल के द्वारा ही होली खेल लेने का, गुलाल उड़ा-उड़ा कर होली खेलने में वो मजा
कतई नहीं है जो खूब रंग मल-मल कर खेलने में, एक-दूसरे को
भिगोने में, शोर-शराबा करते हुए रंग लगाने में आता था. हम सब
भाई-बहिन तो होते ही थे, दोस्त लोग भी आ जाते थे. सब मिलकर
एक अच्छा-खासा ग्रुप बन जाया करता था. पहले आपस में ही होली की बमचक मचती थी उसके
बाद पूरी पलटन मोहल्ले में, शहर में निकल पड़ती. मोहल्ले के
लोग तो परिचित होते थे सो यहाँ भी खूब धमाल मचता था. कोई चाहता तो वह भी हमारी
टोली का हिस्सा बनकर शहर की सड़कों पर निकल पड़ता.
एक बहुत बड़ा अंतर आज और उस समय में दिखाई देता
है और वह है आपसी भाईचारे का. उस समय सड़क चलते हुए व्यक्ति परिचित है या अपरिचित, इससे कोई मतलब नहीं होता था. मन किया तो उसे रोका,
रंग लगाया, गुलाल लगाया और हँसते हुए गले मिल लिए या पैर छू
लिए. न हम लोगों को कोई शर्म-संकोच-झिझक सी लगती थी और न ही सामने वाला किसी तरह
की आपत्ति जताता था. कई बार तो ये भी होता कि दुकानदारों तक से होली खेल ली जाती.
किसी दुकान में कुछ खाने-पीने के लिए रुके, किसी से गुलाल, रंग लेने के लिए रुके तो उसी के साथ होली खेल ली गई. रंगों का, गुलाल का यह सहज, स्नेहिल आदान-प्रदान देर तक चलता
रहता.
अब ऐसा सोचना भी गलत समझ आता है. इस तरह से होली
के मनाये जाने की अब कल्पना भी नहीं की जा सकती है. खैर, सब
समय का चक्र है. कल वहाँ था, आज यहाँ है... हो सकता है कि
आने वाले कल में फिर वहीं रुके जहाँ बीते कल में रुका था.
समय का चक्र ऐसे ही बदलता है
जवाब देंहटाएंसही कहा समय का चक्र है बदल रहा है ...
जवाब देंहटाएंअब पहले सा माहोल कहाँ।
सुन्दर लेख।
कुछ ऐसी ही अनुभूति से मैं भी गुजरी इस होली पर और फिर पुरानी होली की यादों का पिटारा खोल कर बैठ गई…"जब फागुन रंग झमकते थे..,” में ! वक्त है , कब एक सा रहता है😊
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