कैमरा बचपन से ही घर में देखते आ रहे थे इसलिए वह हमारे लिए कोई नई चीज नहीं थी. इसके अलावा जब हम कक्षा आठ में थे, उन दिनों हमारे डॉक्टर मामा ने हमें एक कैमरा गिफ्ट किया. उस समय तो इतना जेबखर्च भी नहीं मिलता था कि कैमरे में रील डलवा कर अपना शौक पूरा कर पाते इसके बाद भी कुछ महीनों तक पाई-पाई जोड़कर कभी-कभार रील डलवा कर शौक पूरा कर लिया जाता था. उन्हीं दिनों विज्ञान प्रगति में अथवा आविष्कार पत्रिका में एक ट्रिक देखने को मिली उस ब्लैक एंड व्हाइट रील से अधिक से अधिक फोटो निकालने की. उस चक्कर में दो-तीन रील बेकार हो गईं, सो अपने फोटोग्राफी शौक को कुछ दिनों के लिए टाल देना उचित समझ आया.
पढ़ाई से लड़ते-जूझते हुए किसी भी बच्चे की सबसे
कठिन मानी जाने वाली दोनों परीक्षाओं हाईस्कूल, इंटरमीडिएट
को सफलतापूर्वक पार करने के बाद जब हम स्नातक में आ गए तो फोटोग्राफी के शौक ने
फिर फड़फड़ाना शुरू किया. अब जेबखर्च की जगह महीने का खर्च मिलना शुरू हो गया था, जिसके चलते पैसे बचाना आसान हो गया था. इसके साथ ही बहुत से मित्र भी
सहयोगी बनने लगे सो फोटोग्राफी के शौक की उड़ान तेज होने लगी. स्कूल टाइम में जिस
शौक को पूरा करने में कई-कई महीने लग जाते थे, वो अब कॉलेज
टाइम में जल्दी-जल्दी पूरा होने लगा. हालाँकि अब कैमरा बदल चुका था. घर में देखा
पिताजी वाला कैमरा और मामा जी द्वारा गिफ्ट किया कैमरा अब काम नहीं आ रहा था
क्योंकि वे दोनों ब्लैक एंड व्हाईट फोटो के लिए बने थे. अब रंगीन फोटो के लिए रील डलवाई
जाती, कैमरा भी मित्रों से ले लिया जाता. हमारे उरई के लंगोटिया
यार अश्विनी से उसका कैमरा ले लिए जाता तो महीनों के हिसाब से हमारे पास रहता. ग्वालियर
के मित्र वहाँ कैमरे की व्यवस्था कर देते. कॉलेज की पढ़ाई पूरी करके उरई वापस आने के बाद हमने अपने जेबखर्च को बचा-बचाकर अपना पहला कैमरा खरीदा. उसके बाद तो दे दनादन वाली स्टायल में फोटोग्राफी होने लगी.
उन दिनों जबकि रील वाली फोटोग्राफी ही हुआ करती
थी तब आज की तरह अंधाधुंध फोटो नहीं खींची जाती थीं. एक रील में महज 36 फोटो खींचने
की सुविधा मिलती थी, जिसे रील को कमरे में लगाते समय की कलाकारी
के चलते दो-तीन स्नैप तक और बढ़ा लिया जाता था. एक-एक फोटो का बहुत महत्त्व हुआ
करता था. उन दिनों अनावश्यक रूप से क्लिक करने की गुस्ताखी नहीं की जाती थी. एक-एक
फोटो खीचने के पहले, खिंचवाने के पहले बहुत सारे तामझाम करने
पड़ते थे. सबके अंदाज का, आसपास के माहौल का ध्यान रखना पड़ता
था. जब कैमरे में रील का नंबर 32-33 दिखने लगे और उसके बाद फोटो खींचने की माँग हो
जाये. ऐसे में एक-एक स्नैप जैसे अनमोल हुआ करता था. सबसे ज्यादा मजा तो तब आता था
जबकि रील अपनी निर्धारित संख्या 36 को पार करके भी एक-दो स्नैप खींच दे. इसके बाद
किसी समय फोटो खिंचाने को सब तैयारी की गई, सभी लोग एकाग्र
भाव से कैमरे के सामने जुटे मगर ये क्या, कैमरे ने फोटो
खींचने से इनकार कर दिया क्योंकि अब रील में जगह बाकी नहीं. सोचिये उस समय फोटो
खिंचवाने वालों की मनोदशा.
इसके अलावा शादी-विवाह समारोहों में, किसी अन्य कार्यक्रमों में जहाँ कि फोटो खींचने वाली स्थिति की मौज ली
जानी हो वहाँ इक्का-दुक्का लोग खाली कैमरा लिए फ्लैश चमकाते दिखते रहते. ऐसे लोग
असल कैमरा वालों की रील को बचाने में सहयोग करते रहते थे. इन सबके बाद इंतजार रहता
रील के धुलकर आने का, फोटो बनकर आने का, उनको जल्दी से जल्दी देखने का. इसके लिए भी मारा-मारी मचती घर में. लैब
से फोटो लाने वाला उस समय शहंशाह हुआ करता था क्योंकि वही सबसे पहले फोटो देखता
था. उसके घर में आने पर छीना-झपटी का माहौल हो जाता. फोटो फट न जाएँ, इसका ध्यान रखते हुए सभी गठबंधन करते हुए फोटो को देखने का नंबर लगा
लेते.
ये निशानी है हमारी फोटोग्राफी की |
अब ऐसी कोई भी स्थिति नहीं बनती. देखा जाये तो
अब फोटो को लेकर कोई क्रेज जैसा नहीं रह गया है. हर हाथ में स्मार्ट फोन होने के
कारण हर हाथ में कैमरा है. न पहले जैसी आतुरता, न पहले जैसा
रोमांच, न पहले जैसी लालसा. अब बस क्लिक-क्लिक-क्लिक करते
जाओ और जो पसंद न आये उसे डिलीट कर दो. न फोटो खींचने का उत्साह, न फोटो खिंचवाने का जोश और न फोटो देखने की उमंग.
इधर अपने सामानों को सहेजने के क्रम में आज
पुराने निगेटिव सही करने बैठे तो लगा कि कितनी फोटो ऐसी हैं जो अब हमारे पास नहीं
हैं. उन दिनों में फोटो बनने के बाद दोस्तों के बीच बंट गईं. कुछ साल पहले निगेटिव
से डिजिटल पॉजिटिव बनवाने सम्बन्धी तकनीक का पता चला था मगर आसपास की सभी फोटो लैब
ने ये काम बंद कर रखा है. अब इधर एक तकनीक की जानकारी हुई है. उसी के सहारे
कारखाना खोल बैठे हैं, पुँने निगेटिव को डिजिटल पॉजिटिव
बनाने का. देखते हैं कितन सफल होते हैं.
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पहले 36 फ़ोटो की कितनी वैल्यू थी, आज तो 3600 खींच कर भी कोई दोबारा नहीं देखता। प्रिन्ट फ़ोटो की बात ही कुछ और थी। हर फ़ोटो एक टाइम स्टाम्प होता है, हर फ़ोटो के पीछे एक कहानी, एक माहौल, एक याद जुड़ी होती थी। पता नहीं, आज से 20 साल बाद डिजिटल फ़ोटोज़ को देखकर वैसा नोस्टालजिया फ़ील होगा कि नहीं।
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आपके इस पोस्ट से बचपन याद आ गया। मेरे पापा को फ़ोटोग्राफ़ी का बहुत शौक़ था। खुद फ़ोटो खींचते और खुद ही डेवलप करते। निगेटिव को देखना भी रोमांचक लगता था। जब फ़ोटो साफ़ होता उसके बाद उसे देखना जादू सा लगता था। पापा के गुज़र जाने के बाद जब हम कुछ बड़े हुए तो रंगीन फ़ोटो वाला कैमरा आया। बहुत सोच समझ कर स्टाइल से फ़ोटो खिंचवाते हम। पर फ़ोटो की भरमार हो गई। एल्बम में फ़ोटो देखना अब भी सुहाता है। मोबाइल के जमाने ने वह रोमांच ख़त्म कर दिया पर अब बिना सोचे फ़ोटो लिया जाता है। बहुत अच्छा लगा पढ़कर। ढेरों स्मृतियाँ ताजी हो गई। आभार।
जवाब देंहटाएंसंकट मोचन हनुमान अष्टक लिरिक्स | Sankat Mochan Hanuman Ashtak Lyrics
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