03 जून 2021

प्राकृतिक आपदाओं का माल्थस के जनसंख्या सिद्धांत से सह-सम्बन्ध

सकल विश्व वर्तमान में एक चीनी वायरस, कोरोना की चपेट में आया हुआ है. यद्यपि इस सम्बन्ध में यूरोप की कुछ प्रयोगशालाओं द्वारा इसके प्राकृतिक वायरस होने की बात कही गई है तथापि इस थ्योरी पर कोई विश्वास नहीं कर रहा है. इस अविश्वास का कारण स्वयं चीन है. बहरहाल, अभी इस पर चर्चा नहीं. आज हम चर्चा करते हैं जनसंख्या सिद्धांत की. जनसंख्या का सम्बन्ध सदैव से उपलब्ध संसाधनों से रहा है. जनसंख्या और संसाधन के बीच यह सम्बन्ध स्थापित करने के लिए अनेकानेक सिद्धांत प्लेटो के समय से सामने आते रहे हैं. इन सिद्धांतों में दो तरह के सिद्धांत सामने आये. पहला, प्राकृतिक सिद्धांत और दूसरा, सामाजिक-सांस्कृतिक सिद्धांत. जिस जनसंख्या सिद्धांत को सर्वाधिक महत्त्व मिला, उसे थॉमस राबर्ट माल्थस द्वारा प्रतिपादित किया गया था. इसे प्राकृतिक सिद्धांत में शामिल किया जाता है.



माल्थस ब्रिटेन के निवासी थे तथा इतिहास तथा अर्थशास्त्र विषय के ज्ञाता थे. इन्होंने अपने एक निबंध प्रिंसिपल ऑफ़ पापुलेशन (Principle of Population) में एक तरफ जनसंख्या की वृद्धि एवं जनसांख्यिकीय परिवर्तनों (demographic changes) का तथा दूसरी तरफ सांस्कृतिक एवं आर्थिक परिवर्तनों का उल्लेख किया. यह निबंध वर्ष 1798 में प्रकाशित भी हुआ था. माल्थस ने अपने निबंध में संसाधन शब्द के स्थान पर जीविकोपार्जन के साधन का प्रयोग किया था. उन्होंने विचार दिया कि मानव में जनसंख्या बढ़ाने की क्षमता बहुत अधिक है और इसकी तुलना में पृथ्वी में मानव के लिए जीविकोपार्जन के साधन जुटाने की क्षमता कम है. उनके अनुसार जनसंख्या वृद्धि गुणोत्तर श्रेणी या ज्यामितीय रूप (Geometrical Progression) में होती है अर्थात जनसंख्या 1248163264128256... की दर से बढ़ती है. इसके उलट जीविकोपार्जन के साधन समान्तर श्रेणी या अंकगणितीय रूप (Arithmetic Progression) में अर्थात 123456789... की दर से बढ़ते हैं. 

वे अपने सिद्धांत में मानते थे कि प्रत्येक 25 वर्षों के बाद जनसंख्या दुगनी हो जाती है. इस स्थिति के अनुसार वे आकलन करके बताते हैं कि दो सौ वर्षों में जनसंख्या और संसाधनों में 256 तथा 9 का अनुपात हो जाता है अर्थात दो सौ वर्षों में जनसंख्या में 256 इकाइयों की वृद्धि होती है जबकि संसाधनों में मात्र इकाइयों की. यदि यह बिना नियंत्रण के आगे बढ़ता रहे तो यह अंतर लगभग अनिश्चित हो जायेगा. इस तरह की स्थिति के कारण जनसंख्या इतनी अधिक हो जाएगी कि उसका भरण-पोषण लगभग असंभव हो जायेगा. इसके चलते भुखमरीकुपोषण सहित अन्य समस्याओं का जन्म होता है.

ऐसी आनुपातिक स्थिति के चलते माल्थस का मानना था अतः उत्पादन चाहे कितना भी बढ़ जाएजनसंख्या की वृद्धि दर उससे सदा ही अधिक रहेगी. उन्होंने जनसंख्या एवं संसाधनों की अनुपात की तीन अवस्थाओं को बताया.

1- जब संसाधन उपलब्ध जनसंख्या की तुलना में अधिक हो.
2- जब संसाधन और जनसंख्या दोनों लगभग समान हो.
3- जब संसाधन के तुलना में जनसंख्या अधिक हो.

पहली और दूसरी स्थिति में जनसँख्या के कम अथवा समान होने के कारण जनसंख्या संबंधी समस्याओं की पहचान नहीं हो पाती लेकिन तीसरी स्थिति में, जबकि जनसंख्या संसाधनों से अधिक होती है तब जनसंख्या वृद्धि एक भयावह चुनौती के रूप में सामने आती है. इस स्थिति में जनसंख्या तथा संसाधनों के बीच की खाई अधिक बढ़ जाती है. परिणामस्वरूप पूरा समाज अमीर और गरीब में विभाजित हो जाता है. इसी के चलते पूंजीवादी व्यवस्था स्थापित हो जाती है. इस अवस्था में खाद्यान्न संकट वृहद स्तर पर उत्पन्न होता है और जनसंख्या के लिए खाद्यान्न की समस्या प्रमुख हो जाती है. संसाधनों पर अधिक दबाव की स्थिति में भुखमरीमहामारीयुद्ध और प्राकृतिक आपदा की स्थिति उत्पन्न होने लगती है. ऐसी स्थिति के कारण हुई मौतों के पश्चात् जनसंख्या में कमी आती है अर्थात जनसंख्या प्रकृति द्वारा नियंत्रित हो जाती है और पहली अथवा दूसरी  अवस्था में जाने लगती है. 


उनका स्पष्ट मत था कि जनसंख्या को यदि नियंत्रित न करके जनसंख्या और संसाधनों में संतुलन स्थापित नहीं किया जाता है तो प्रकृति स्वतः ही संतुलन स्थापित लेती है. जनसंख्या नियंत्रण के इन कारणों को माल्थस ने सकारात्मक उपाय कहा है. इसके साथ-साथ माल्थस ने जनसंख्या नियंत्रण के लिए इन सकारात्मक उपायों के अतिरिक्त भी नियंत्रण के प्रभावी उपाय किए जाने पर जोर दिया. उनका कहना था कि यदि मनुष्य स्वयं ही ब्रह्मचर्य का पालनआत्मसंयमदेर से विवाह और विवाह के बाद भी आत्मसंयम जैसे नैतिक उपायों पर जोर दे तो न ही जनाधिक्य की स्थिति उत्पन्न होगी और न ही जनसंख्या विस्फोट की स्थिति होगी.

यदि उक्त सिद्धांत के परिप्रेक्ष्य में विगत एक दशक की प्राकृतिक घटनाओं पर ही नजर डालें तो समझ आएगा कि लगभग समूचा विश्व अपने आपमें किसी न किसी प्राकृतिक आपदा की चपेट में लगातार आता रहा है. जंगलों की आग, सूनामी जैसी स्थिति, बाढ़, भूस्खलन, ज्वालामुखी विस्फोट, सार्स, इबोला, मर्स आदि महामारियाँ, चक्रवाती तूफ़ान आदि-आदि ऐसी प्राकृतिक आपदाएँ हैं जिनके द्वारा संभव है कि प्रकृति समय-समय पर जनसंख्या और संसाधनों में संतुलन स्थापित कर रही हो. वर्तमान में कोरोना वायरस को इसी रूप में देखा जा सकता है. इसकी पहचान होने के समय मौसम के प्रभावी होने की बात करते हुए कहा जा रहा था कि कोरोना वायरस गर्म क्षेत्रों में ज्यादा समय तक जिन्दा नहीं रहता है. यदि एकबारगी इसे सच मान लें तो हम सभी देख रहे हैं कि आज, मार्च की समाप्ति के बाद भी देश में गर्मी नहीं पड़ी है. लगभग हर दूसरे-चौथे दिन यहाँ बारिश होने के चलते मौसम ठंडा हो जा रहा है. कहीं यह प्रकृति द्वारा संतुलन बनाने का प्रयास तो नहीं?

कुछ भी हो मगर यह सत्य है कि जब-जब जनसंख्या उपलब्ध संसाधनों से अधिक होगी तो अराजकता की स्थिति आएगी. सामानों, उत्पादों के लिए लूट मचेगी. सक्षम लोगों तक इनकी उपलब्धता हो सकेगी जो इससे वंचित रहेंगे वे भुखमरी, कुपोषण आदि का शिकार होंगे. स्पष्ट है कि प्रकृति स्वतः ही संतुलन स्थापित कर लेगी. वर्तमान कोरोना परिदृश्य में, भले ही यह चीन द्वारा निर्मित वायरस है, हम सभी को जनसँख्या नियंत्रण के उपायों पर गम्भीर होना ही होगा. यदि ऐसा नहीं कर सके तो आने वाला समय लगातार ऐसी ही किसी न किसी महामारी का, विभीषिका का शिकार बनता रहेगा.


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