किसी भी व्यक्ति का जीवन विविध
क्षेत्रों से गुजरता हुआ पल्लवित, पुष्पित होता रहता है. इन क्षेत्रों में जहाँ प्राथमिक वरीयता में उसका
पारिवारिक क्षेत्र आता है इसके बाद सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, साहित्यिक, राजनैतिक
आदि क्षेत्रों में उसके जीवन का गुजरना होता है. जीवन के इन क्षेत्रों से गुजरते
हुए व्यक्ति बहुत कुछ सीखता भी है और बहुत कुछ सिखाता भी है. पारिवारिक क्षेत्र का
सम्बन्ध नितांत व्यक्तिगत होता है और इसमें अत्यंत निकटवर्ती लोगों को ही प्रवेश
मिलता है. इसके उलट शेष क्षेत्रों की गतिविधियाँ सार्वजनिक ही कही जा सकती हैं.
राजनीति हो, समाजसेवा हो, साहित्य
गतिविधि हो सभी में व्यक्ति का सार्वजनिक जीवन उभर कर सामने आता है.
ऐसी स्थिति में भी बहुतायत रूप
में सामाजिक क्षेत्र में किसी भी व्यक्ति की सक्रियता उसके व्यक्तित्व का वास्तविक
स्वरूप का परिचायक बनती है. कहा जा सकता है कि सामाजिक क्षेत्र की गतिविधियाँ
व्यक्ति के वास्तविक स्वरूप, चरित्र को उद्घाटित करती हैं. सामाजिक क्षेत्र के अनुभवों से सहज रूप में
देखने में आया है कि पारिवारिक क्षेत्र को जिम्मेवारी के भाव से सँवार दिया गया है
और इस क्षेत्र को जीवन के किसी भी अन्य दूसरे क्षेत्रों में सबसे ज्यादा पावन
माना-समझा गया है. सामाजिक क्षेत्र में सक्रिय लोगों को अत्यंत सम्मान के भाव से
देखा जाता है. उनके बारे में ऐसी धारणा बनी होती है कि वे लोग अपने जीवन का बहुत
बड़ा हिस्सा निस्वार्थ भाव से दूसरे के लिए व्यतीत कर रहे हैं. समाज में आने वाली
अनेक आपदाओं के समय में ऐसे सामाजिक लोगों कि सक्रियता ने अनेक बार उनको देवतुल्य
भी माना है.
मानव के विकास के क्रम में जहाँ
उसका शैक्षिक विकास हुआ,
आर्थिक विकास हुआ, तकनीकी विकास हुआ वहीं कुछ क्षेत्रों में
विकास का उलटा स्वरूप देखने को मिला. सामाजिक क्षेत्र में इसका बहुत ज्यादा असर
देखने को मिला. अब इस क्षेत्र में ऐसे लोग बहुतायत में सक्रिय होते जा रहे हैं
जिनका समाजसेवा से अथवा सामाजिक क्रियाकलापों से कोई लेना-देना नहीं. ऐसे लोग
सामाजिक क्षेत्र के उन लोगों से एकदम अलग होते हैं जो निस्वार्थ भाव से काम करने
में विश्वास करते हैं. ऐसे नए उभरते सामाजिक लोगों का एकमात्र उद्देश्य, सामाजिकता
का अर्थ किसी भी तरह से मंच, माइक और सम्मान प्राप्त कर लेना
है. सामाजिक क्षेत्र में समय के गुजरते रहने के साथ-साथ ऐसे लोगों का कारवां बढ़ता
ही रहा है. ऐसे नए उभरते सामाजिक लोगों द्वाराजोड़-तोड़ करके मंच हासिल करना, सम्मान प्राप्त करना और ऐसा न हो पाने की दशा में कलह मचा देना, आयोजकों के चरित्र तक पर उँगली उठा देना ऐसे लोगों का सामान्य स्वभाव बनता
जा रहा है. यही कारण है कि सामाजिक क्षेत्र में अब वास्तविक सामाजिक लोगों की
मानसिकता में व्यापक परिवर्तन होता जा रहा है.
ये नए उभरते हुए सामाजिक या
कहें कि असामाजिक प्राणी न केवल मंच को अपने कब्जे में करने की कोशिश करते हैं
बल्कि कार्यक्रम आरम्भ होने के पहले ही ये तथाकथित सामाजिक लोग आयोजकों को
निर्देशित करते हैं कि उनको फलां के पहले बोलने को बुलाया जाये. उनको सम्मान दिया
जाये तो फलां के पहले. ऐसे लोगों की कोशिश यह भी रहती कि दूसरे को सम्मान मिलने ही
न पाए.
समय व्यतीत करते जाने के
साथ-साथ ऐसे लोग खुद को ताकतवर भी बनाते जाते हैं. स्थानीय होने के कारण ऐसे लोग ऐसे
लोग मंच के लिए, मंच की
कुर्सियों पर बैठने के लिए, सम्मान,
पुरस्कार जबरिया माँग कर हड़पने की कोशिश में लगे रहते हैं. स्थानीय स्तर पर नाम
होने के बाद भी ऐसे लोग अपने उपद्रवी स्वभाव, जबरन कब्ज़ा
करने की मानसिकता के चलते एकाधिक बार बिना बुलाये, बिना
आमंत्रित किये मंचासीन होते देखे गए हैं. बहुत बार सम्मान,
पुरस्कार के लिए जोड़-तोड़ करते, डराते-धमकाते भी देखे गए हैं.
यह समझ से परे है कि आखिर मंच की तृष्णा क्यों? आखिर हर मंच
से सम्मान पाने की लालसा क्यों? आखिर बिना काम किये खुद को
प्रतिस्थापित करने की कुंठित मनोभावना क्यों? आखिर सम्मान न
मिलने पर, मंचासीन न किये जाने पर आयोजक के चरित्र को कटघरे
में खड़ा कर देने की कुत्सित सोच क्यों?
जहाँ तक अनुभव की, सामाजिकता की बात है तो सामाजिक
क्षेत्र भी किसी वृक्ष की तरह से होता है, जहाँ पुराने
पत्तों को डाली से स्थान छोड़ना होगा और नए पत्तों के खिलने को जगह देनी होगी.
सामाजिक क्षेत्र किसी परिपक्वता की माँग करता है जहाँ आपको अपनी जगह स्वयं बनानी
पड़ती है. अतीत के अपने कुछ कामों, अपने नाम, मीडिया में अपने परिचय, परिवार के रसूख के बल पर
आखिर कब तक नए लोगों से प्रतिस्पर्द्धा की जाती रहेगी? मंच
पर जगह, लोगों के दिलों में सम्मान स्वतः पैदा होता है. किसी
हनक के चलते, अपने उपद्रवी स्वभाव के चलते, कार्यक्रम में व्यवधान पैदा करने की मानसिकता रखने के चलते सिर्फ बदनामी
ही पायी जा सकती है. संभव है कि ऐसे लोगों के स्वभाव के चलते आयोजक ऐसे लोगों को
मंच प्रदान कर दे, माइक दे दे, सम्मान
भी प्रदान कर दे मगर ऐसे लोग समाज में, नागरिकों में, प्रशासन में, मीडिया में स्थायी रूप से जगह नहीं
बना पाते हैं. क्षणिक प्रतिष्ठा की चाह में, क्षणिक प्रचार
की चाह में ऐसे लोग सिर्फ बदनामी ही पाते हैं. बिना किसी श्रम के, बिना किसी उल्लेखनीय कार्य के मंच, माइक, मंचासीन होने, सम्मान पाने की लालसा ऐसे लोगों के
कमजोर व्यक्तित्व का ही परिचायक होता है. देखा जाये तो ऐसे लोग सामाजिक क्षेत्र के
व्यक्तित्व नहीं बल्कि पिस्सू होते हैं जो सामाजिक क्षेत्र में उभरते हुए वास्तविक
सामाजिक व्यक्तित्वों का लहू पी रहे होते हैं.
जबरिया सम्मान और धौंस बाहर चल सकता है, लेकिन कोई उन्हें घर बुलाना और उनका सम्मान करना कतई पसंद नहीं करेगा
जवाब देंहटाएंआज के कटु सत्य उजागर करती जागरूक पोस्ट
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (14-03-2021) को "योगदान जिनका नहीं, माँगे वही हिसाब" (चर्चा अंक-4005) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ-
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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कटु सत्य । सुन्दर आलेख ।
जवाब देंहटाएंकटु सत्य उजागर करती सुंदर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रस्तुति
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