अपने जीवन का बहुत लम्बा समय
सामाजिक क्षेत्र में व्यतीत करने के कारण बहुत से व्यावहारिक अनुभवों को करीब से
देखने का अवसर मिला है. इन अनुभवों में कुछ अनुभव बहुत सुखद रहे तो कुछ अनुभव तो
अत्यंत दुखद रहे. सामाजिक क्षेत्र में बहुत से ऐसे लोगों से परिचय हुआ जो
निस्वार्थ भाव से काम करने में विश्वास करते हैं. इसके उलट बहुत से ऐसे लोगों से
भी सामना हुआ जिनके लिए सामाजिकता का अर्थ महज मंच, माइक और सम्मान प्राप्त कर लेना रहा है. सामाजिक क्षेत्र में
समय के गुजरते रहने के साथ-साथ ऐसे अनुभवों का खजाना हमारे पास बढ़ता ही रहा है.
यही कारण है कि बहुत बार सामाजिक क्षेत्र में खुद को सामने लाने की मानसिकता में
व्यापक परिवर्तन होता जा रहा है. जोड़-तोड़ करके मंच हासिल करना, सम्मान प्राप्त करना और ऐसा न हो पाने की दशा में कलह मचा देना, आयोजकों के चरित्र तक पर उँगली उठा देना ऐसे लोगों का सामान्य स्वभाव रहा
है.
अपनी सामान्य शिक्षा और
प्रतियोगी परीक्षाओं की व्यापक असफलता (आखिर जहाँ चाहते थे, वहाँ चयनित न हो सके) के बाद जब
सामाजिक क्षेत्र में कदम रखा तो दिमाग में यही ख्याल था कि इस क्षेत्र में लोग सेवा
की भावना से आते होंगे. इस क्षेत्र में जो लोग भी सक्रिय हैं वे निस्वार्थ भाव से
अपना समय देते होंगे. आरंभिक अनुभव ही इतने कड़वे निकले कि उन्हीं दिनों में
सामाजिक सेवा से दूर होने का मन बना लिया था. कार्यक्रम आरम्भ होने के पहले ही
हमें तथाकथित सामाजिक लोगों द्वारा निर्देशित किया जाता कि उनको फलां के पहले
बोलने को बुलाया जाये. उनको सम्मान दिया जाये तो फलां के पहले. ऐसे लोगों की कोशिश
यह भी रहती कि दूसरे को सम्मान मिलने ही न पाए.
बहरहाल समय ने बहुत कुछ सिखाया
और बहुत जल्दी अच्छे-बुरे की पहचान करके खुद को ऐसे जंजालों से दूर कर लेते हैं.
सामाजिक क्षेत्र में बीस वर्ष से अधिक समय गुजर गया है, इसके बाद भी स्थिति अभी भी वहीं की
वहीं दिखाई दे रही है. ऐसे लोग आज भी मंच के लिए, मंच की
कुर्सियों पर बैठने के लिए, सम्मान,
पुरस्कार जबरिया माँग कर हड़पने की कोशिश में लगे रहते हैं. स्थानीय स्तर पर नाम
होने के बाद भी ऐसे लोग अपने उपद्रवी स्वभाव, जबरन कब्ज़ा
करने की मानसिकता के चलते एकाधिक बार बिना बुलाये, बिना
आमंत्रित किये मंचासीन होते देखे गए हैं. बहुत बार सम्मान,
पुरस्कार के लिए जोड़-तोड़ करते, डराते-धमकाते भी देखे गए हैं.
यह कोई सुनी-सुनाई बात नहीं बल्कि स्वयं अनुभव की हुई, स्वयं
देखी गई स्थिति है. यह समझ से परे है कि आखिर मंच की तृष्णा क्यों? आखिर हर मंच से सम्मान पाने की लालसा क्यों? आखिर
बिना काम किये खुद को प्रतिस्थापित करने की कुंठित मनोभावना क्यों? आखिर सम्मान न मिलने पर, मंचासीन न किये जाने पर
आयोजक के चरित्र को कटघरे में खड़ा कर देने की कुत्सित सोच क्यों?
जहाँ तक हमारा अनुभव है कि सामाजिक क्षेत्र भी किसी वृक्ष की तरह है, जहाँ पुराने पत्तों को डाली से स्थान छोड़ना होगा और नए पत्तों के खिलने को जगह देनी होगी. हमारा अपना अनुभव है कि सामाजिक क्षेत्र किसी परिपक्वता की माँग करता है जहाँ आपको अपनी जगह स्वयं बनानी पड़ती है. अतीत के अपने कुछ कामों, अपने नाम, मीडिया में अपने परिचय, परिवार के रसूख के बल पर आखिर कब तक नए लोगों से प्रतिस्पर्द्धा की जाती रहेगी? मंच पर जगह, लोगों के दिलों में सम्मान स्वतः पैदा होता है. किसी हनक के चलते, अपने उपद्रवी स्वभाव के चलते, कार्यक्रम में व्यवधान पैदा करने की मानसिकता रखने के चलते सिर्फ बदनामी ही पायी जा सकती है.
संभव है कि
ऐसे लोगों के स्वभाव के चलते आयोजक ऐसे लोगों को मंच प्रदान कर दे, माइक दे दे, सम्मान भी प्रदान कर दे मगर ऐसे लोग
समाज में, नागरिकों में, प्रशासन में, मीडिया में स्थायी रूप से जगह नहीं बना पाते हैं. क्षणिक प्रतिष्ठा की
चाह में, क्षणिक प्रचार की चाह में ऐसे लोग सिर्फ बदनामी ही
पाते हैं. बिना किसी श्रम के, बिना किसी उल्लेखनीय कार्य के मंच, माइक, मंचासीन होने, सम्मान
पाने की लालसा ऐसे लोगों के कमजोर व्यक्तित्व का ही परिचायक होता है. देखा जाये तो
ऐसे लोग सामाजिक क्षेत्र के व्यक्तित्व नहीं बल्कि पिस्सू होते हैं जो सामाजिक
क्षेत्र में उभरते हुए वास्तविक सामाजिक व्यक्तित्वों का लहू पी रहे होते हैं.
बहुत अच्छा विश्लेषण है।
जवाब देंहटाएंFact analysis
जवाब देंहटाएंFact analysis
जवाब देंहटाएंekdam sahi...
जवाब देंहटाएंखरी खरी शानदार
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर और सटीक👌
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