23 फ़रवरी 2021

अइया को याद करते हुए

कहते हैं कि समय घावों को भर देता है. इसके बाद भी कुछ बातें, कुछ यादें ऐसी होती हैं जिनको समय भी धुंधला नहीं कर पाता है. वे मन-मष्तिष्क पर ज्यों की त्यों अंकित रहती हैं. वे यादें, वे बातें अक्सर, समय-असमय सामने आकर खड़ी हो जाती हैं. गुजरता समय लगातार गुजरता रहता है. इस समय-यात्रा में बहुत कुछ बदलता रहता है. कुछ नया जुड़ता है, कुछ छूट जाता है. इस जुड़ने-छूटने में, मिलने-बिछड़ने में सजीव, निर्जीव समान रूप से अपना असर दिखाते हैं. इस क्रम में बहुत सी बातें स्मृति-पटल का हिस्सा बन जाती हैं. कुछ अपने दिल के करीब होकर, दिल में बसे होकर भी आसपास नहीं दिखते. उनकी स्मृतियाँ, उनके संस्मरण उनकी उपस्थिति का एहसास कराते रहते हैं. यही एहसास उनके प्रति हमारी संवेदनशीलता का परिचायक है. बरस के बरस गुजरते जाते हैं, दशक के दशक गुजरते जाते हैं मगर इन्हीं स्मृतियों के सहारे लगता है जैसे सब कुछ कल की ही बात हो. ऐसा उस समय और भी तीव्रता से सामने आता है जबकि वह तिथि विशेष आँखों के सामने से गुजर जाए.


23 फरवरी एक ऐसी ही तारीख है कि जब पीछे पलट कर देखते हैं तो दो दशक की यात्रा दिखाई देती है. इस तारीख से जुड़ी बातें स्वतः याद आने लगती हैं. बहुत कुछ स्मरण हो आता है. याद आता है बहुत से अपने लोगों का साथ चलना, बहुत से अपने लोगों का ही साथ होना. साथ होकर भी साथ न दिखना. साथ न दिखते हुए भी साथ रहना. ऐसे ही लोगों में एक हमारी अइया भी हैं. जी हाँ, अइया यानि कि हमारी दादी. इस तारीख को ही अइया हम सबको छोड़कर बहुत दूर चली गईं, जहाँ से न उनका आना संभव है और न हम लोगों का जाना. ये विधि का विधान है कि किसी को इस संसार में आना होता है और उस आने वाले को किसी न किसी दिन जाना होता है. अवस्था कैसी भी हो अपने सदस्य के जाने का दुःख होता ही है. अइया के जाने का दुःख तो था ही. संतोष इसका था कि उनके अंतिम समय में पूरा परिवार उनके सामने था, उनके साथ था, जैसा कि बाबा के साथ न हो सका था. अइया के चले जाने के दो दशक बाद भी एक-एक घटना, एक-एक बात जीवंत है. उनके कमरे के साथ, उनके सामान के साथ, उनकी यादों के साथ. जिस दिन उनको पेंशन मिलती, हम तीनों भाइयों को वे कुछ न कुछ देतीं मगर उस नाती को कुछ ज्यादा धनराशि मिलती जो उनको लेकर जाता था. (इस वर्ष यह दुर्भाग्य रहा हमारे परिवार का कि अइया के इन तीन नातियों में से एक नाती उनके पास चला गया. मिंटू ही उनको खूब परेशान करता रहता था. वह अक्सर अइया को यह कहते हुए परेशान करता कि पेंशन के पैसों से हमें ज्यादा पैसे दिया करो नहीं तो किसी दिन हम रात में पूरे रुपये निकाल लेंगे आपकी डोलची से.)




खाने-पीने को लेकर होती चुहल, उनके पुराने दिनों को लेकर होती बातें, उनकी कुछ बनी-बनाई धारणाओं पर हँसी-मजाक बराबर होता रहता, जो उनके बाद बस याद का जरिया है. अपने अंतिम समय तक वे इसे मानने को तैयार न हुईं कि सीलिंग फैन कमरे की हवा को ही चारों तरफ फेंकता है, उसमें किसी तरह का बिजली का करेंट नहीं होता है. वे अपनी त्वचा दिखाकर बराबर कहती कि ये पंखा बिजली से चलता है और बिजली फेंकता है. तभी हमारी खाल जल गई है. इसी तरह की धारणा रसोई गैस को लेकर बनी हुई थी. गैस की शिकायत होने पर वे कहती कि गैस की रोटी, सब्जी, दाल खाई जाएगी तो पेट में गैस ही बनेगी. ऐसी बहुत सी बातें हैं जो अइया की याद में आये आँसुओं को मुस्कान में बदल देतीं हैं.


उस दिन सामान्य से हँसी-मजाक के बीच उन्होंने अपनी मनपसंद गुझिया खायी और फिर अचानक ही दूसरे लोक की यात्रा के लिए जैसे चलने को तत्पर हो गईं. हम लोग बस देखते ही रह गए. ऐसा लगा जैसे वे अपनी विगत दस-बारह दिन की शारीरिक समस्या को जैसे एक झटके में दूर कर चुकी हैं. ऐसा लगा जैसे उन्हें सारे परिवार के एकसाथ होने का इंतजार था. फ़िलहाल तो अइया को गए काफी लम्बा समय हो गया मगर उनकी बहुत सी बातें आज भी ज्यों की त्यों दिल-दिमाग में बसी है.


आज उनकी पुण्यतिथि पर श्रद्धासुमन अर्पित हैं.


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