पुराना गया और नया आ गया। इस नये के आने पर जो खुशी चेहरे पर दिख रही थी वह आज चौथे दिन ही गायब है। ऐसा क्यों? वैसे खुशी इन चार दिनों में ही गायब नहीं हुई बल्कि वह तो बहुत दिनों से गायब है। सही है न? अब विचार करिए पीछे गुजार चुके दिनों को और खुद देखिए कि जीवन के पल को खुश रहकर गुजारा या बोझ समझ कर। असल में बहुतेरे लोगों को इसका भान ही नहीं कि जीवन क्या है और इसे बिताना कैसे है। लोगों के लिए जीवन का मतलब पैदा होना, पढ़ना, कमाना, शादी, घर, बीवी, बच्चे और फिर उनकी तथा उनके बच्चों की 'लाइफ सेटेल' करते-करते मर जाना।
हो सकता है कि बुरा सा लग रहा हो पढ़ कर परन्तु सत्य तो यही है। सबकुछ सही से करने की आपाधापी में लोग खुद को कब भुला बैठते हैं पता ही नहीं चलता। जीवन में निरुद्देश्य घूमना, पुराने दोस्तों के साथ रात-रात भर बिना काम की बातों में उलझे रहना, परिवार की परेशानी को कुछ घंटों के लिए भुला कर बस अपने आपमें खोए रहना कितने लोग करते हैं? इधर-उधर न देखिए, खुद को देखिए। अपने शौक की बड़ी सी पोटली में से कब एक कतरा शौक निकाल कर उसे पूरा किया है? कमाते रहना, उसी के लिए खपना और फिर एक ऐसे जीवन को सुखमय बनाने के लिए, जिसके अगले पल का भरोसा नहीं, धन-संग्रह करते रहना खुद को मारना ही है।
बुरी तरह दौड़ती-भागती ज़िन्दगी में कुछ पल अपने लिए निकालते कर देखिए, आनन्द मिलेगा। जरूरी नहीं कि देश-दुनिया की सैर की जाए, अपना कोई भी वाहन लेकर शहर के बाहर के खेत, मैदान तक एक चक्कर लगा लीजिए, फिर देखिए। हाँ, इन नितांत निजी पलों में आपके साथ बस आप ही हों, न आपका परिवार, न आपकी नौकरी, न आपकी समस्या। करके देखिए, खुद को खुद के साथ जोड़ कर देखिए, खुशी मात्र चार दिन की नहीं लगेगी। तब लगेगा कि खुशी तो हमेशा साथ थी बस स्वयं ही देख-समझ न पाए।
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वंदेमातरम्
ज़िन्दगी बेवजह निकल गई; पर अब भी समय है ख़ुद के साथ जीने का। बहुत सही और सार्थक विचार।
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