जिम्मेवारियाँ कभी समाप्त नहीं होतीं बल्कि अपना रूप बदल-बदल कर सामने आती ही रहती हैं. कई बार ऐसा सुनते थे लोगों को कहते कि फलां जिम्मेवारी से निपट जाएँ तो आराम मिले मगर हमें लगता है कि यदि व्यक्ति में वाकई जिम्मेवारी का भाव है तो वह कभी भी जिम्मेवारी से मुक्त नहीं हो सकता है. अपनी निभाई गई जिम्मेवारियों के प्रति भी कर्तव्य-निर्वहन के दायित्व के चलते वह व्यक्ति स्वयं को मुक्त नहीं कर पाता है. ऐसा उन व्यक्तियों के साथ विशेष रूप से होता है जो किसी न किसी रूप से खुद को गंभीरता के साथ अपने दायित्वों से जोड़े रखते हैं. किसी भी जिम्मेवारी से खुद को गंभीरता के साथ जोड़े रखने का भाव ही ऐसे व्यक्तियों को कभी भी जिम्मेवारी से मुक्त नहीं होने देता है.
जिम्मेवारी का यह भाव सुख भी देता है तो कष्ट भी प्रदान करता है. किसी दायित्व के निर्वहन का सफलता से संपन्न हो जाना और उसके बाद आने वाला समय भी उस दायित्व के सफल बने रहने का भाव पैदा करे तो चरम सुख की प्राप्ति होती है. इसके उलट यदि किसी दायित्व निर्वहन के सफल समापन के बाद भी उसके बाद का समय सफलता का बोध न जगाए, किसी रूप में जिम्मेवारी के आंशिक सफल-असफल होने का भाव पैदा करे तो वहाँ सुख की अनुभूति नहीं हो सकती है. आपस में जुड़े संबंधों, रिश्तों के चलते कई बार ऐसी स्थिति पैदा हो जाती है जबकि जिम्मेवारी उठाने वाले व्यक्ति में पश्चाताप का भाव पनपने लगता है. ऐसी स्थिति किसी भी जिम्मेवार व्यक्ति के लिए दुःख का कारण बनती है. यहाँ वे लोग ज्यादा कष्ट का अनुभव करते हैं जो जमीनी रूप से संबंधों, रिश्तों की अहमियत समझते हैं, उनसे जुड़े हैं.
अर्थपूर्ण आलेख, दायित्व निभाना भी जीवन की एक महत्वपूर्ण साधना है - - नमन सह।
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