15 दिसंबर 2020

मासूम बचपन सी फाउंटेन पेन की शैतानियाँ

नए-पुराने फाउंटेन पेन की अपनी छोटी सी बगिया में आज सैर करने निकले तो बहुत सी यादें ताजा हो गईं. जी हाँ, हमारे लिए वह बगिया ही है और उस बगिया में ढेर सारे अलग-अलग तरह के फाउंटेन पेन खुशनुमा चेहरों के साथ उपलब्ध हैं. पेन के इस खुशनुमा चेहरों के एहसास को वह बहुत सहजता से महसूस कर सकता है जो फाउंटेन पेन का प्रेमी होगा. नई पीढ़ी के लिए भले ही यह आश्चर्य हो मगर उन सभी लोगों के लिए, जो फाउंटेन पेन-प्रेमी हैं, उनको यह पहले प्यार जैसा एहसास जगाये रहता है. इसे हम अपने और अपने तमाम उन मित्रों के अनुभव के आधार पर कह सकते हैं, जो फाउंटेन पेन के शौक़ीन हैं. आज भले ही बहुतायत में लोगों द्वारा फाउंटेन पेन का उपयोग नहीं किया जाता हो मगर बाजार में अनेक रंग-रूप के, एक से एक सुन्दर डिजायन के, अत्याधुनिक तकनीक के साथ मनमोहक फाउंटेन पेन की भरमार है. इसके सापेक्ष हम जब अपने बचपन के दिनों में अपने पेन के बीच जाते हैं तो उसी बचपन जैसा मासूम सा, भोला-भाला पेन नजर आता है.


कहिए, आपको भी याद आया? आज आप भले ही कम्प्यूटर, मोबाइल का बहुतायत उपयोग करने लगे हों मगर हो सकता है कि आपने अपने बचपन में अपनी उँगलियों के बीच, अपनी नन्हीं सी हथेलियों में फाउंटेन पेन को थामा होगा. याद करिए आज के रंग-बिरंगे, नक्काशीदार मनमोहक पेन के बीच अपने बचपन के उस पेन को. उसमें भी आपके बचपन जैसी मासूमियत आपको अब नजर आ रही होगी. जैसे सारे बच्चे अपने भोलेपन स्वभाव में एक जैसे होते हैं ठीक वैसे ही हमारे बचपन का वो फाउंटेन पेन हुआ करता था. एक पारदर्शी टंकी, उसके ऊपर एक रंग के ढक्कन जो लाल, नीले, काले आदि किसी रंग के होते थे और एकजैसे ही निब, कोई सफ़ेद तो कोई पीले. बचपन की मासूमियत की तरह वे फाउंटेन पेन हम बच्चों के साथ खूब ठिठोली सी करते थे.


सोचिये, सोचिये... कोई ठिठोली याद आई आप लोगों को? हमें तो खूब याद है और आज भी जब हम अपने फाउंटेन पेन की बगिया में उनके बीच बैठते हैं तो वे सब भी अपनी उन शैतानियों को खूब याद करवाते हैं. हम बच्चों की शैतानियों की तरह उस समय के फाउंटेन पेन की शैतानियाँ भी हुआ करती थीं. उनका उद्देश्य कभी भी हम बच्चों को परेशान करना नहीं होता था बल्कि वे अपने स्वभाव के चलते शैतानी कर जाया करते थे. पारदर्शी टंकी को कभी ड्रॉपर के सहारे, कभी सीधे स्याही की बोतल के सहारे भरने की कोशिश होती. शैतान फाउंटेन पेन की टंकी जानबूझ कर हिल जाया करती और स्याही टंकी के बजाय हमारे ही ऊपर. अब इसे पेन की ही शैतानी कहेंगे, अपने नन्हे हाथों की कमजोर, काँपती पकड़ थोड़े कहेंगे.


इसी तरह अक्सर पता चलता कि सुबह तो उस पेन ने हँसते-हँसते हमारे साथ लिखने का काम किया और जब दोपहर में उसके साथ फिर खेलना चाहा तो महाशय चलने से मना कर देते थे. अब ये उनकी शैतानी ही हुआ करती थी. अब कोशिश होती थी कि पारदर्शी टंकी से कुछ बूँदें निब तक आ जाएँ तो शायद पेन हमारे साथ लिखने का खेल खेलने लगे. इस चक्कर में निब के ऊपर ऊँगली फिरा-फिरा कर स्याही को टंकी से घसीटने का काम किया जाता. कई बार इसमें सफलता न मिलने पर पेन को झटका दिया जाता. अब जैसे ही दो-चार बार पेन को झटका दिया वैसे ही उसकी शैतानी कपड़ों पर बूँदों के रूप में छप जाती थी. कभी खुद की नेकर, शर्ट पर चित्रकारी होती, कभी आसपास बैठे साथियों पर, भाई-बहिनों पर तो कभी घर के कपड़ों पर. फाउंटेन पेन की इस शैतानी पर अक्सर डांट भी पड़ जाती थी.


कपड़ों के अलावा पेन के स्नेह के निशान रोज ही उँगलियों पर, होंठों पर नजर आते रहते. चलते-चलते पेन का रुकना हुआ नहीं कि झट से निब-फीड (जिव्ही) को होंठों की कोमलता के सहारे दाँतों की कठोरता से दबाया. अब हाथों, उँगलियों, हथेलियों में इस करामात के निशान बनकर कारीगरी की चुगली किया करते. पानी, कपड़ों के सहारे धो-पोंछ कर वापस सबको यथास्थान लगाते. कभी तो मेहनत सफल हो जाती और कभी-कभी अपनी इस कलाकारी में तोड़-फोड़ भी हो जाया करती. कहिये फाउंटेन पेन हाथों से फिसलकर जमीन की शरण में चला गया तो निब की शक्ल बदल गई. दाँतों, होंठों के सहारे खींचने की जबरिया कोशिश में कई बार दोनों का टूटना हो जाया करता.




आज वे पुराने मासूम से पेन भी हमारी बगिया की शोभा बने हुए हैं तो आज के छैल-छबीले, डिजायनर पेन भी उसी बगिया में उनके साथी बने हुए हैं. अब टंकी को पारदर्शी से दूर करते हुए रंगीनियत मिल गई है तो तकनीक ने उसमें स्याही भरे जाने की मुश्किल को भी सरल कर दिया है. अब स्याही टंकी के सहारे से कपड़ों पर अपने रंग नहीं छोड़ती है. लिखने के दौरान भी उँगलियों से स्याही दूर-दूर ही रहती है. अब स्याही भरने की झंझट को भी स्याही की रेडीमेड बैरल ने समाप्त कर दिया है. इतना सबकुछ होने के बाद भी हम फाउंटेन पेन धोने के बहाने, खाली बैरल में स्याही भरने के बहाने, पेन की निब तक स्याही को घसीट कर लाने के लिए उस पर ऊँगली फेरने के बहाने अपने हाथों में बचपन की वही रंगीन कलाकारी कर लेते हैं. फाउंटेन पेन के साथ इस कलाकारी के बहाने हम वापस अपने बचपन में पहुँच जाते हैं.



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वंदेमातरम्

2 टिप्‍पणियां:

  1. अहा , निब वाली कलम , दवात ,स्याही जाने क्या क्या याद दिला दिया आपने राजा साहब अपनी इस प्यारी सी पोस्ट से । बहुत ही प्यारी यादें

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  2. उँगलियों पर स्याही का दाग लिखाकु होने की निशानी थी। ज़रूरी नोट्स पर पानी गिर जाए तब की शक्ल, ओहो, सारे अक़्ल ठिकाने पर। क्या क्या याद दिलाया आपने। मज़ा आ गया।

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