शैतानियाँ,
शरारतें कहीं से भी सीखनी नहीं पड़ती हैं. कोई सिखाता भी नहीं है. यह
तो बालपन की स्वाभाविक प्रकृति होती है जो किसी भी बच्चे की नैसर्गिक सक्रियता के बीच
उभरती रहती है. स्कूल में हम कुछ मित्रों की बड़ी पक्की, जिसे
दांतकाटी रोटी कह सकते हैं, दोस्ती थी. कक्षा में एकसाथ बैठना.
भोजनावकाश के समय एकसाथ बैठकर भोजन करना. आपस में मिल-बाँटकर भोजन करना. इस मंडली में
एक मित्र मनोज के पिताजी घरेलू सामानों की एक दुकान थी. लगभग रोज शाम को मनोज का दुकान
पर जाना होता था. जैसा कि बालसुलभ स्थितियों में होता है, उसके
पिता लाड़-प्यार में यह कहते हुए कि शाम को दुकान के मालिक तुम हो, कुछ पैसे उसे दे दिया करते थे. हम मित्र भी दस-पाँच पैसे लेकर आया करते थे.
आज की पीढ़ी को ये आश्चर्य लगेगा जिसको हजारों रुपये में जेबखर्च मिलता हो कि उस समय
हम लोगों को पांच-दस पैसे कभी-कभी मिलते थे. ये आज आश्चर्य भले हो मगर उस समय किसी
अमीर से कम स्थिति नहीं होती थी हम दोस्तों की. ऐसा रोज तो नहीं होता था पर जिस दिन
ऐसा संयोग बनता था कि ठीक-ठाक मुद्रा जेब में आ गई तो सुबह की प्रार्थना के समय ही
योजना बनाकर कक्षा में सबसे पीछे बैठा जाता था.
कक्षा
में पीछे बैठने के अपने ही विशेष कारण हुआ करते थे. असल में स्कूल परिसर में या उसके
आसपास किसी बाहरी व्यक्ति को किसी तरह का खाने-पीने का सामान बेचे जाने की अनुमति नहीं
थी. स्कूल समय में किसी बच्चे को बाहर जाने की अनुमति नहीं थी ताकि स्कूल का कोई विद्यार्थी
बाहर का कोई सामान न खा लें. इसको सख्ती से पालन करवाने के लिए भोजनावकाश के समय किसी
न किसी शिक्षक की मुस्तैदी स्कूल के मुख्य गेट पर दिखाई देने लगती थी. ऐसे में हम दोस्त
अपने खुरापाती दिमाग की मदद से कक्षा के पीछे वाले दरवाजे का उपयोग भागने के लिए किया
करते थे. यह खुराफात भी स्कूल चलने के समय हुआ करती थी. उस समय कक्षाएँ चलने के
कारण मुख्य गेट पर शिक्षकों की चौकस निगाहों में कुछ न कुछ ढील सी बनी रहती थी.
इसके पीछे उनकी सोच ये हुआ करती थी कि बच्चे कक्षाएँ चलने के दौरान बाहर नहीं
निकलेंगे और हम लोग किसी दिन इसी ढील का लाभ उठा लिया करते थे.
स्कूल
के एकदम पास में एक छोटा सा होटल हुआ करता था, जिसे सभी अन्नू
का होटल के नाम से जानते थे. उसके समोसे बहुत ही स्वादिष्ट होते थे. चूँकि भोजनावकाश
में अध्यापकों की मुस्तैदी के कारण उन समोसों का स्वाद लिया जा संभव नहीं हो सकता था.
ऐसे में कक्षा में सबसे पीछे बैठना समोसों तक पहुँच बनाने में सहायक हो जाता था. हम
दोस्त आपस में पैसे इकट्ठे करके एक दोस्त को जिम्मेवारी देते समोसे लाने की. ज्यादातर
इसके लिए रॉबिन्स को ही चुना जाता. वह कभी पानी पीने की, कभी
बाथरूम जाने की अनुमति लेकर अन्नू के होटल तक अपनी पहुँच बनाता. और कभी-कभी बिना अनुमति
के कक्षा के पीछे वाले दरवाजे का उपयोग किया जाता था. स्कूल का मुख्य द्वार लोहे की
अनेक रॉड से मिलकर बना हुआ था, जिसमें से थोड़े से प्रयास के बाद
हम बच्चे लोग आसानी से निकल जाया करते थे.
अन्नू के होटल तक झटपट जाने और फटाफट वापस आने की कला में माहिर रॉबिन्स अपनी नेकर की दोनों जेबों में कुछ समोसे भर कर कक्षा में दिखाई देने लगता. कक्षा में सबसे पीछे बैठी पूरी मित्र-मंडली अगले ही पल स्वादिष्ट समोसों का स्वाद ले रही होती थी. कक्षा में सबसे पीछे बैठने का मूल कारण स्कूल के मुख्य द्वार पर नजर रखना और फिर अपनी रणनीति में कामयाब होने के तत्काल बाद कक्षा में ही समोसे का स्वाद लेना रहता था. आज जब कभी रॉबिन्स के मिलने पर स्कूल की घटनाएँ, स्कूल के दोस्तों की चर्चा होती है तो वह बिना कहे नहीं चूकता है कि तुम लोगों ने हमें खूब दौड़ाया, हमारी जेबों में खूब तेल लगवाया. रॉबिन्स को इस कारण भी ये घटना और भी अच्छे से याद है क्योंकि आये दिन घर में उसकी इसी बात पर कुटाई हो जाया करती थी कि नेकर की जेबें तेल से गन्दी कैसे हो जाती हैं.
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