हस्तलिपि की चर्चा छिड़ी तो बचपन की एक घटना याद आ गई. उस समय हम कक्षा पाँच में पढ़ते थे. एक शाम पिताजी बाजार से वापस आने के बाद अपना लिखा-पढ़ी का कोई काम कर रहे थे. हमने देखा कि पिताजी अपने जिस फाउंटेन पेन से लिखते थे, उससे न लिख कर एक नए पेन से लिख रहे हैं. मैरून रंग का वह पेन बहुत अच्छा लग रहा था. यद्यपि रंगीन पेन हमारे लिए नया नहीं था क्योंकि पिताजी जिन फाउंटेन पेन का प्रयोग करते थे, वे रंगीन बॉडी के ही थे. उन पेन को छूने की हिम्मत भी नहीं होती थी.
उस शाम पता नहीं हमें क्या हुआ, शायद मैरून रंग का ज्यादा आकर्षण रहा कि जैसे ही पिताजी ने अपना काम बंद करके पेन रखा, हमने पिताजी से पूछा कि ये पेन हम ले लें? पिताजी की अनुमति मिलते ही ख़ुशी का ठिकाना न रहा. झटपट पेन उठाया, अपनी कॉपी निकाली. कॉपी के एक पेज पर बड़ी ही फुर्ती में अपना पूरा नाम (जैसा चित्र में लाल रंग में लिखा है) लिख कर पिताजी को दिखाने पहुँच गए.
उन्होंने पूछा कि कुमारेन्द्र कैसे लिखा जाता है?
हमारी फुर्ती, पेन पाने की ख़ुशी को जैसे ग्रहण लग गया. तुरंत इतना समझ आ गया कि लिखने में कुछ गलती कर गए. कॉपी पर लिखे अपने नाम को फिर से देखा तो समझ आ गया कि द्र की मात्रा गलत लगा गए. गलती समझ आई तो तुरंत सही तरीके से कुमारेन्द्र लिख कर दिखा दिया (जैसा कि चित्र में पीले रंग में लिखा है). पिताजी ने सिर हिलाते हुए उस सही को स्वीकार किया और गलत लिखने की सजा भी सुना डाली.
अब जाओ, सौ बार कुमारेन्द्र लिखो.
नए फाउंटेन पेन से लिखने के चक्कर में सजा पहले तो सजा जैसी न लगी मगर बीस-तीस बार कुमारेन्द्र लिखने के बाद नया पेन आफत लगने लगा. फिलहाल सजा तो पूरी करनी ही थी, सो करी. आज भी बरसों बरस बीत जाने के बाद भी कहीं भी जब अपना नाम लिखते हैं तो तुरंत यह सजा, वह मैरून फाउंटेन पेन याद आ जाता है.
ऐसी छोटी छोटी सज़ा से ही तो सीखता है आदमी। उस अभ्यास का प्रमाण है कि आपकी लिखावट सुन्दर है।
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