12 सितंबर 2020

साधारण डाक यदि कूड़े के ढेर में मिले तो कोई आश्चर्य नहीं

तकनीकी विकास ने पत्र-लेखन को लगभग समाप्त ही कर दिया है. इधर इसके साथ-साथ एक बात और देखने को मिली है कि साधारण डाक का वितरण भी लगभग शून्य हो गया है. इस जुलाई में पत्र लेखन दिवस पर बहुत से मित्रों को पत्र लिखे थे. इन मित्रों में स्थानीय मित्र भी शामिल थे और देश के अनेक प्रदेशों के मित्र भी शामिल रहे. बहुत से मित्रों को पत्र मिले और बहुत से मित्र अभी तक पत्र से वंचित हैं. कुछ दिन पहले एक पंजीकृत पत्र के वितरण में हो रही अनावश्यक देरी के कारण अपने एक अधिकारी मित्र को अपनी समस्या से अवगत कराया. उनकी सहायता से पत्र तो प्राप्त हुआ मगर इस कोरोना काल में डाक विभाग की समस्या से भी परिचित होने का मौका मिला. उस पत्र के विलम्ब से वितरण का कारण समझ आया.


कोरोना काल के दौर में लागू किये गए लॉकडाउन और ट्रेनों की, परिवहन के अन्य साधनों की आवाजाही बंद करवाने के कारण पत्र वितरण में समस्या आनी स्वाभाविक थी. इस समस्या के चलते मन ने स्वीकार कर लिया कि शहर/जनपद से बाहर के पत्र वितरण में परिवहन के साधनों की उचित उपलब्धता के कारण देरी होना स्वाभाविक है मगर शहर के अन्दर पत्र वितरण में देरी का क्या कारण है? हमने अपने जनपद के मित्रों को तो पत्र लिखे ही साथ ही उरई शहर के अनेक मित्रों को पत्र लिखे. शहर के कुछ मित्रों को पत्र मिल भी गए मगर जनपद के अन्य स्थानों तक पत्र नहीं पहुँचे. समझ नहीं आया कि उरई शहर की डाक को उरई शहर में वितरित करने के लिए कौन सी ट्रेन की आवश्यकता है? यदि जनपद के अन्य स्थानों की बात पर भी विचार करें तो भी अब निजी वाहनों का चलना आरम्भ हो गया है. ऐसे में पत्रों का जनपद में ही, शहर में ही वितरित न हो पाना समझ से परे है.


साधारण डाक वितरण का सुस्त रहना या फिर वितरण ही न किया जाना आज की समस्या नहीं वरन उस समय की भी समस्या है जबकि समाचारों के आदान-प्रदान का माध्यम पत्र ही हुआ करते थे. बहुत अच्छी तरह से याद है कि एक बार हमारे शहर के एक डाकिये की शिकायत पर उसके खिलाफ जाँच बैठाई गई तो मालूम हुआ कि वह सारी की सारी साधारण डाक अपने घर ले जाकर चूल्हे में जला देता है. ऐसी घटनाओं के होने के बाद भी तब डाक व्यवस्था अपने सुव्यवस्थित रूप में काम किया करती थी. आज भी बहुत सी जगहों पर डाक व्यवस्था अच्छी सेवा के रूप में जानी जा रही है. इसका उदाहरण स्वयं हम हैं. कोरोना काल में जैसे ही डाक सेवाएँ सामान्य हुईं वैसे ही हमारी डाक नियमित रूप से आने लगी. सप्ताह में दो-तीन दिन डाक को आना ही होता है. इस बात को हमारे क्षेत्र में अभी तक कार्यरत रहे डाकिये भली-भांति जानते रहे हैं.

कुछ साल पहले तक हम इन डाकियों की परीक्षा भी ले लिया करते थे. खुद ही एक पोस्टकार्ड लिख कर डाल दिया करते थे. उसमें किसी तरह का कोई समाचार न लिख कर कोई नंबर, कोई पंजीकरण संख्या आदि लिख देते थे. पोस्टकार्ड देखने पर समझ आता कि कोई बहुत महत्त्वपूर्ण समाचार नहीं है, कोई अनिवार्य रूप से पहुँचाने वाला सन्देश नहीं है, इसके बाद भी हमारा पोस्टकार्ड हम तक पहुँचता. कई बार डाक की गड़बड़ी हमारे साथ भी हुई मगर उसकी शिकायत के द्वारा वह गड़बड़ी भी दूर करवा दी जाती रही.

फ़िलहाल तो अब पत्र लिखने वाले भी न के बराबर हैं, डाक से सामग्री पाने वाले भी न के बराबर हैं. ऐसे में डाकिये भी डाक की, साधारण डाक की महत्ता को जान-समझ रहे हैं. यदा-कदा आने वाली साधारण डाक यदि कूड़े के ढेर में मिले या फिर नाले में, आग के हवाले चली जाए तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं.

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#हिन्दी_ब्लॉगिंग

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