आत्महत्या,
क्या अब ये महज एक शब्द बनकर रह गया है? एक आत्महत्या का अर्थ है एक व्यक्ति का चले
जाना. यह ऐसा कदम है जहाँ दुःख भी होता है, क्षोभ भी होता है
मगर बहुत सारे अनुत्तरित से सवाल शेष रह जाते हैं. तमाम तरह की अनिश्चितता सामने आ
जाती हैं. संभावनाओं-असंभावनाओं के इस दौर में लोगों का अनिश्चय के साये में ज़िन्दगी
बिताना और फिर हताशा के चलते मौत के आगोश में चले जाना समझ से परे है. लोगों में अनिश्चय
हावी है, हताशा हावी है, निराशा जारी है,
इंसान का मरना जारी है, युवाओं का मरना ज़ारी है.
इस हावी रहने में, बहुत कुछ जारी रहने में सबसे बुरा है सपनों
का मरते जाना, विश्वास का मिटते जाना. यांत्रिक रूप से गतिबद्ध
ज़िन्दगी नितांत अकेलेपन के साथ आगे बढ़ती दिखती है किन्तु आगे बढ़ती सी लगती नहीं. इक्कीसवीं
सदी को औद्योगीकरण की, भूमंडलीकरण की, वैश्वीकरण
की, तकनीक की सदी घोषित कर दिया गया. इसके चलते समाज में अर्थ
को महत्त्वपूर्ण माना जाने लगा. लोगों के लिए एकमात्र उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ धनोपार्जन
करना बन गया है. इसके लिए जीवन को यंत्रवत सा बना लिया गया है.
अब विद्रूपता ये कि ये यांत्रिक ज़िन्दगी न केवल धनोपार्जन के लिए वरन बचपन, शिक्षा,
घर-परिवार आदि में भी दिखने लगी है. किसी समय मौज-मस्ती, शैतानियों, शरारतों आदि के लिए बचपन को याद किया जाता
था किन्तु अब ऐसा लगता है जैसे बचपन की भ्रूण हत्या कर दी गई है. हँसते-खेलते बच्चों
की जगह बस्तों का बोझ लादे, थके-हारे से, मुरझाये से बच्चे दिखाई देते हैं. शरारतों, शैतानियों
की जगह उनके चेहरों पर बड़ों-बुजुर्गों जैसी भाव-भंगिमा, सोच-विचार
दिखाई देता है. नीले आकाश के नीचे उन्मुक्त खेलते, तितली बनकर
उड़ते बच्चों को अब कमरों में बंद कर दिया गया है, उड़ान के लिए
उनके हाथों में लैपटॉप, मोबाइल थमा दिए गए हैं. किसी समय में
दादा-दादी, नाना-नानी के आँचल में छिपकर परियों, वीरों के किस्से-कहानियाँ सुन-सुनकर बड़े होने वाले बच्चे टीवी सीरियल्स के
कथित लाइव शो को देखकर बड़े हो रहे हैं, स्मार्टफोन की इंटरनेट
दुनिया के कारण समय से पहले ही स्मार्ट हो रहे हैं.
धनोपार्जन
की आपाधापी में अभिभावकों का संलिप्त रहना, युवाओं का भागमभाग
में जुट जाना, अपनी आँखों के सपनों को जिंदा बनाये रखने के लिए
संवेदना को मारकर आगे बढ़ते जाना आदि ऐसा कुछ हुआ जिसने समूचे समाज को उल्टा खड़ा कर
दिया. अनियमित होती जीवनशैली, परिवार से दूर रहने की मजबूरी,
अधिकाधिक भौतिक संसाधनों की प्राप्ति करना, चकाचौंध
भरी जिंदगी को जीने की लालसा ने इंसान को इंसान की जगह मशीन बना दिया. मशीन बनते इस
इंसान ने मशीन बनते ही सबसे पहले अपने भीतर की संवेदना को समाप्त कर उसकी जगह एक बाज़ार
को जन्म दिया. रिश्ते, नातों, परिवार,
बच्चों, दोस्तों आदि को उसने सिर्फ बाज़ार की दृष्टि
से देखा. सब जगह उसने हानि-लाभ का समीकरण लगाया और उसी के अनुसार अपने आपको संबंधों-रिश्तों
के साँचे में उतारा. इस यांत्रिक जीवन का दुष्परिणाम यह हुआ कि सारे रिश्ते समाप्त
से होते दिखे. बच्चों के लिए माता-पिता और माता-पिता के लिए बच्चे नोट छापने की मशीन
मात्र बनकर रह गए. रिश्तों का मोल महज संबोधन के लिए होता दिखने लगा. ऐसी स्थिति में
अकेलापन बढ़ना स्वाभाविक ही है और वैसा हुआ भी. धन, भौतिक संसाधन,
आधुनिकतम उपकरण, तकनीक की भरमार हो गई और इंसान
एकदम अकेला हो गया.
इस
अकेलेपन को दूर करने के लिए तन्हा इंसान ने सबक न लिया; अपनी
तन्हाई को दूर करने के लिए अपनों का सहारा नहीं लिया; अपने अकेलेपन
को दूर करने के लिए इंसानों का सहयोग नहीं लिया क्योंकि विडम्बना ये है कि आधुनिकता
के बाज़ार में इंसान दिख ही नहीं रहे हैं. चारों तरफ सिर्फ मशीन ही मशीन हैं,
यंत्र ही यंत्र हैं. अकेलेपन का उपाय मोबाइल में, लैपटॉप में, छलकते जाम में, सिगरेट
के छल्लों में, नशे के बादलों में, दैहिक
आकर्षण में, बिस्तर की सिलवटों में खोजा जा रहा है. सेल्युलाइड
के परदे की चकाचौंध को ही अपने जीवन की वास्तविकता मान लिया जा रहा है. आभासी दुनिया
के नकलीपन को ही अपने जीवन का असलीपन बना लिया जा रहा है. इससे अकेलापन कम होने की बजाय और बढ़ता जा रहा है. इंसान के भीतर एक तरह का खोखलापन बढ़ता जा रहा है. यही कारण
है कि पिता अपनी ही बेटी से कुकृत्य करने में लगा है. भाई-बहिन के बीच शारीरिक सम्बन्ध
बन रहे हैं. इंसानी देह महज भोग की वस्तु बनती जा रही है. यौनेच्छा पूर्ति के लिए हवसी
बच्चियों, वृद्धाओं, शवों तक को नहीं बख्श
रहे हैं. दैहिक संबंधों को मानसिक संबंधों पर वरीयता दी जाने लगी है.
ऐसी स्थिति में
अंत नितांत दुखद होता है. जब आँख खुलती है तो व्यक्ति को अपने चारों तरफ आभासी दुनिया
का एहसास होता है, नितांत भ्रम का एहसास होता है, सबकुछ पीछे छूट जाने के दुःख होता है, अपनों के कहीं
दूर चले जाने का भाव जगता है. यही सबकुछ व्यक्ति में और अधिक दुःख, हताशा, निराशा का संचार कर देता है. ऐसे में व्यक्ति
या तो अवसाद की अवस्था में चला जाता है या फिर आत्महत्या जैसा जघन्य कृत्य कर बैठता
है. ज़ाहिर है कि अकेलेपन का इलाज मशीन नहीं, बाज़ार नहीं,
तकनीक नहीं वरन अपने लोग हैं, घर-परिवार है. आवश्यकता
इस सत्य को समझने की है. यदि ऐसा नहीं होता है तो कारण कुछ भी बताये जाएँ, लोगों में अकेलापन हावी रहेगा, लोगों का मौत के आगोश
में चलते चले जाना जारी रहेगा.
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#हिन्दी_ब्लॉगिंग
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