इस
पोस्ट से अपने आपको वे संदर्भित करें जो किसी न किसी तरह से खुद को राजनीति में या
राजनैतिक विचारों से जुड़ा मानते हैं.
ये
चित्र कल, शिला पूजन के बाद से लगातार चर्चा में है. रामभक्तों
को इस चित्र से कोई समस्या नहीं. समस्या उन्हें है जिनके आराध्य राम नहीं बल्कि 'रासो' नामधारी हैं (ये रासो काव्य नहीं, प्राचीन हिन्दी काव्य का). इस चित्र के दो पहलू हैं. एक में माना
जा सकता है कि मोदी जी श्रीराम का हाथ पकड़ मंदिर की तरफ ले जा रहे हैं. यदि यही है
तो इसमें बुरा क्या है? हम सभी सनातनी मानते हैं कि बालरूप भगवान
का रूप है फिर बालरूप भगवान का हाथ पकड़ने में क्या समस्या? हर
माँ-बाप अपने बच्चे का हाथ पकड़ता है.
इसके
साथ यह कि अयोध्या का यह मंदिर रामलला का मंदिर है, सियाराम का
नहीं. गैर-रामभक्त इसका अर्थ क्या समझेंगे. उनके आराध्य बाई हैं, बाबा हैं. लला का मतलब बच्चा से ही लगाया जाता है. ऐसे में रामलला का मतलब
राम के बालरूप से है. कोई अभिभावक अपने लला को अकेला कैसे छोड़ दे?
अब
इसके उलट सत्य यह है कि रामलला मोदी जी का हाथ पकड़े हैं यह अंधे चाटुकारों को नहीं
दिखेगा. उनको अपनी जीभ दिखती है और उनकी चाटने वाली जगह, सो चाटते
रहते हैं आँखें बंद किये. रामलला मोदी जी का हाथ पकड़ें मंदिर की तरफ जा रहे हैं तो
गलत क्या है? भगवान ही है जो हमारा हाथ पकड़ राह दिखाता है. चाटुकारों
के बाप ने ताला खुलवाया तो था फिर क्या हुआ, रामलला टेंट में
आ गए. अब उनको लगा कि मोदी जी को राह दिखाई जाये तो रामलला खुद आये और मोदी जी का हाथ
पकड़ मंदिर तक ले जा रहे हैं.
अंतिम
बात, रामभक्तों के अलावा बाकी लोगों के आराध्य श्रीराम नहीं हैं
तो फिर उनको काहे चिनचिनी मची है कि कौन किसका हाथ पकड़ें है. तुम लोग अपने आराध्यों
का पकड़ें रहो, हाथ. हम अपने आराध्य का पकड़ें हैं, हाथ या उनको अपना हाथ पकड़ाए हैं.
तुम
गैर-रामभक्तो अपनी चिनचिनी वहीं मिटाओ, यहाँ कोशिश करोगे तो मुँह
पर खाओगे... एक लड्डू कल के शिलापूजन का.... खाते जाओ बे....!!
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#हिन्दी_ब्लॉगिंग
समीचीन और सुन्दर आलेख।
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