संबंधों
को, रिश्तों को बचाने की कोशिश क्या सभी लोग करते हैं? क्या सभी लोग ऐसा करते
होंगे? या इस तरह की हरकत कुछ विशेष लोगों में ही देखी जाती है? सामाजिक रूप से
सक्रिय रहने के कारण और बिटोली अभियान के द्वारा कन्या भ्रूण हत्या निवारण जैसे कार्यक्रम
का सञ्चालन करने के कारण परिवारों से लगातार मिलना-जुलना होता रहता है. ऐसे में
अनेक बार ऐसी स्थितियाँ देखने को मिलती हैं जबकि परिवार के किसी सदस्य को लेकर कुछ
लोग बहुत चिंतित रहते हैं और कुछ लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ता है. एक ही परिवार
में सभी रक्त-सम्बन्धियों की आर्थिक, सामाजिक स्थिति, प्रस्थिति में अंतर होता है
और इसी कारण से उनके रहन-सहन, सोच, जीवन-यापन में भी अंतर आना स्वाभाविक है. एक ही
परिवार के कुछ सदस्य कम संसाधनों में, कम सुविधाओं में भी समन्वय के साथ अपना जीवन
व्यतीत करते हैं जबकि इसके विपरीत कुछ लोग ऐसी स्थिति में खुद को हताश, निराश
समझने लगते हैं.
ऐसे
लोगों का रवैया अपने परिवार के प्रति, अपने दोस्तों के प्रति, समाज के प्रति अलग
तरह का हो जाता है. उनके दृष्टिकोण में भी बदलाव देखने को मिलता है. ऐसे लोगों को
लगने लगता है कि उनकी सहायता करने वाला कोई भी व्यक्ति उनकी सहायता नहीं कर रहा है
बल्कि उनका मजाक बना रहा है, उनकी स्थिति के कारण उनकी उपेक्षा कर रहा है. ऐसे
लोगों की सोच, मानसिकता स्व-केन्द्रित होकर कार्य करने लगती है. उनको लगता है कि
वे जो कर रहे हैं, जो कह रहे हैं वही अंतिम सत्य है. यदि उनके शुभेच्छुओं द्वारा
उनको समझाने का कार्य किया भी जाए तो वे इसे अन्यथा समझते हुए अपनी तौहीन समझते
हैं. कहीं न कहीं उनके अन्दर यह भावना जन्मने लगती है कि उनके स्वभाव, उनकी सोच,
उनकी कार्य-प्रणाली को समझा नहीं जा रहा है और इसी कारण वे एक तरह की सुपीरियरिटी
कॉम्प्लेक्स का शिकार हो जाते हैं.
यही वह बिंदु होता है जबकि न तो उनके साथ वाला उनका आकलन कर पाता है और न ऐसे व्यक्ति
स्वयं का आकलन कर पाते हैं. दरअसल यह सुपीरियरिटी कॉम्प्लेक्स एक तरह की
नकारात्मकता से उपजता है. ऐसी स्थिति में ऐसे व्यक्तियों का सुपीरियरिटी कॉम्प्लेक्स
नकारात्मक रूप ले लेता है. यह स्थिति ऐसे व्यक्तियों के लिए खतरनाक भी हो जाती है.
इसका शिकार हुए बहुत से व्यक्ति अवसाद का शिकार भी हो जाते हैं. वैश्वीकरण,
भौतिकता के दौर में जो सामाजिक स्थिति बनी हुई है उसके कारण समाज का बहुसंख्यक
वर्ग ऐसा होता है जिसको किसी भी व्यक्ति की सामाजिकता, उसकी पारिवारिक स्थिति,
आर्थिक स्थिति से कोई फर्क नहीं पड़ता है. समाज का यह वर्ग ऐसे लोगों की तरफ ही
नहीं बल्कि अन्य लोगों की तरफ भी किसी तरह का ध्यान नहीं देता है. ऐसे में मानसिक,
आर्थिक, शारीरिक, पारिवारिक, सामाजिक रूप आदि से निराशाजनक स्थिति का शिकार लोगों
के प्रति सकारात्मकता दिखाने वालों में उसके परिजन, उसके मित्र अथवा समाज के चंद
लोग ही होते हैं.
ये
वे लोग होते हैं जो संबंधों के निर्वहन का महत्त्व समझते हैं. यही वे लोग होते हैं
जो रिश्तों की गरिमा को समझते हैं. यही वे लोग होते हैं जो सामाजिकता को बनाये
रखते हुए भावनाओं और संवेदनाओं को पल्लवित-पुष्पित रखते हैं. ऐसे लोग समझते हैं कि
उसके परिवार का अथवा उसका मित्र किसी स्थायी समस्या से परेशान नहीं है बल्कि वह
अपने आसपास की स्थितियों, घटनाओं का शिकार होकर निराशा की तरफ चला गया है. ऐसे
शुभेच्छुजन अपने उस सदस्य की स्थिति का न तो मजाक बनाते हैं, न उसका उपहास करते
हैं और न ही उसे बीच राह में छोड़ने का कार्य करते हैं.
इस
कोरोनाकाल में अपने साथ के बहुत से लोगों की मानसिक स्थिति को देखा-समझा है, समाज
के अनेक लोगों से किसी न किसी तरह से संपर्क बनाये रखते हुए उनके आसपास की स्थिति
को, परिस्थिति को समझा है. एक तरह की काउंसलिंग का कार्य करते हुए महसूस किया है
कि परिस्थितियों से निराश-हताश व्यक्ति को एहसास कराने की आवश्यकता है कि जो लोग
उसके साथ हैं वे वाकई उसके अपने हैं. उस व्यक्ति के भीतर घर कर गई असुरक्षा की
भावना, डर की भावना को निकालने की आवश्यकता होती है. लॉकडाउन और अनलॉक समय के
तीन-चार महीनों में फोन से, व्यक्तिगत मुलाकात से बहुत से अपनों, मित्रों,
सहयोगियों, अपरिचितों, सोशल मीडिया के मित्रों की समस्याओं का निराकरण करने में
सफलता मिली है. उनके भीतर से डर, असुरक्षा, निराशा आदि को बहुत हद तक दूर करने में
भी सफलता मिली है. इसके बाद भी बहुत से मित्र, नजदीकी, सहयोगी आदि ऐसे हैं जो किसी
न किसी रूप में असुरक्षा, निराशा से खुद को घेरे हुए हैं. उनके इस घेरे को तोड़कर
जल्द ही मुक्ति दिलवाने का कार्य करना है.
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#हिन्दी_ब्लॉगिंग
लॉकडाउन में समस्या बढ़ी है।आज की ज्वलन्त समस्या है ये और सामाजिक जगरूकता की बहुत जरुरत है। मेरे एक ब्लॉग 'मानसिक अवसाद से कैसे दूर रहें' में इस पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है।
जवाब देंहटाएंhttps://sharda-arora.blogspot.com/
रिश्तों का मनोविज्ञान बहुत जटिल है। सदैव सकारात्मक सोचें यह हो नहीं पाता। बहुत अच्छा लिखा आपने। विचारणीय।
जवाब देंहटाएंविचारोत्तेजक अभिनव लेख।
जवाब देंहटाएंआदरणीय राजा कुमारेन्द्र सेंगर जी, आपने आज के आधुनिक टग की एक ज्वलंत समस्या पर विचारोत्तेजक लेख लिकब है। साधुवाद!
जवाब देंहटाएंमैंने आपका ब्लॉग अपने रीडिंग लिस्ट में डाल दिया है। कृपया मेरे ब्लॉग "marmagyanet.blogspot.com" अवश्य विजिट करें और अपने बहुमूल्य विचारों से अवगत कराएं। सादर!--ब्रजेन्द्रनाथ