31 जुलाई को विश्व पत्र दिवस मनाये जाने पर हमने विचार किया था कि उस दिन
अपने मित्रों को पत्र लिखेंगे. इसी सम्बन्ध में सोशल मीडिया पर एक पोस्ट लगाकर उन मित्रों
के पते चाहे जो हमारा पत्र पाना चाहते हों. लगभग आधा सैकड़ा मित्रों ने अपने पते
हमें भेज कर पत्र भेजने की इच्छा व्यक्त की. इतने सारे मित्रों की सकारात्मक
प्रतिक्रिया देखकर उत्साह बढ़ गया. कल और आज तमाम कामों के बीच से समय निकाल कर
बहुत से मित्रों को पत्र लिख भी डाले. पत्र लिखने में बड़ा ही मजा आ रहा था. यद्यपि
पत्रों के आने-जाने के लगभग न के बराबर माहौल में भी हम नियमित रूप से पत्र लिखते
रहते हैं तथापि इतनी बड़ी संख्या में पत्र बहुत दिन बाद लिखना हो रहा है.
इनको
लिखने के दौरान वे दिन भी सामने आकर खड़े हो जा रहे हैं जबकि पत्रों के द्वारा
मित्रों, परिचितों के बीच वैचारिक आदान-प्रदान होता था. पढ़ने के उन दिनों में पत्र
लिखने का चाव बहुत बुरी तरह से हम मित्रों के बीच बना हुआ था. हम दोस्तों की बातें
किसी और को पता न चलें इसके लिए लिफाफे का इस्तेमाल किया जाता था. मंहगा होने के
बाद भी इसका इस्तेमाल करना मजबूरी थी. एक तरफ अपनी बातों को सबसे छिपाना होता था
दूसरे बातें इतनी अधिक होती थीं कि उनका अंतर्देशीय पत्र में सिमट पाना संभव ही
नहीं होता था. ऐसे में न तो अंतर्देशीय पत्र काम करता था और पोस्टकार्ड की तरफ तो
देखा भी न जाता था. कई-कई पन्नों में हम दोस्तों की अपनी गाथा सिमटी होती थी.
अलग-अलग शहरों में पढ़ रहे हम मित्र अपने कॉलेज की, दोस्तों की, पढ़ाई की चर्चा करते
रहते.
जेबखर्च
की सीमित स्थिति के चलते डाक टिकटों के साथ कुछ शरारत कर ली जाया करती थी. साधारण
डाक लिफाफा एक रुपये का हुआ करता था. किसी कागज़ का लिफाफा बनाकर उस पर दस-दस पैसे
के दस टिकट अलग-अलग जगहों पर लगाये जाते थे. ऐसा करने से कई बार कुछ डाक टिकट मुहर
लग जाने से बच जाया करते थे. उनका दोबारा उपयोग कर लिया जाता था. एक-दो बार प्रयोग
किये गए लिफाफों को भी चला दिया गया. प्राप्ति वाले पते को काट कर लिख दिया कि ये
व्यक्ति यहाँ नहीं रहता है और वापसी वाला पता डाल दिया जाता था. हालाँकि ऐसा एक-दो
बार ही किया गया मगर काम बन गया था.
आज
तकनीकी इस कदर तेज है कि पलक झपकने के साथ लोगों तक अपनी बात पहुँच जा रही है.
इसके बाद भी हम खुद महसूस करते हैं कि उन दिनों जैसी भावनाएं मशीनी पत्र में देखने
को नहीं मिल रही हैं. आज के मशीनी संदेशों का संकलन आसान हो गया है मगर उनको पढ़ने
में, उनको दोबारा खोलकर देखने में किसी एहसास की अनुभूति नहीं होती है. शब्दों का
टाइप होना, कागज छूने का एहसास न होना, अनजाने ही उस व्यक्ति का चेहरा उन लिखे
शब्दों में बनना अब महसूस ही नहीं होता. बहरहाल, ये तकनीक है जो बदल कर इस दौर में
ले आई है मगर हमें हमारे मित्रों ने उन्हीं पुराने दिनों की याद ताजा करवा दी है.
सभी का हृदय से आभार.
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#हिन्दी_ब्लॉगिंग
अच्छा उपक्रम ....पत्रों की बातें पढ़ते हुए अनेक किस्से निये हो गए ।बधाई
जवाब देंहटाएंवाह! यह तो बहुत अच्छा कर रहे हैं। पत्र दिवस की जानकारी आपके पोस्ट से मुझे मिली। बहुत शुभकामनाएँ।
जवाब देंहटाएंपत्र दिवस का तो पता आज लगा ।
जवाब देंहटाएं- रेखा