26 जुलाई 2020

बीते दिनों की याद दिलाता खामोश शहर

आजकल हमारे जनपद में बाज़ार शाम चार बजे बंद हो रहा है. बंद हुए बाजार में इसके बाद सिर्फ दवा-दारू की दुकानों के खुले रहने की अनुमति है. ये दवा-दारू वह संयुक्त शब्द नहीं जो आमतौर पर किसी बीमार के इलाज के लिए बोला जाता है. यहाँ इस शब्द का तात्पर्य दो तरह की दुकानों से ही है. एक दुकान दवाओं की और दूसरी दुकान शराब की. बाजार बंद होने के बाद यही दो दुकानें खुली मिलतीं हैं. बाजार खुले रहने की स्थिति में दिन भर दिखाई पड़ने वाली भीड़ शाम को गायब रहती है. दिन की तुलना में कहा जाये तो लगभग न के बराबर. कई-कई दिन की घर-बंदी के बाद शाम को अपने स्कूटर पर बैठे-बैठे शहर का आदतन एक चक्कर लगाने के दौरान अथवा शाम के समय किसी अत्यावश्यक काम से निकलने के दौरान या फिर सप्ताह में होने वाले दो दिनों के लॉकडाउन के दौरान मेडिकल कार्य से निकलने पर शहर की जो स्थिति दिखाई देती है वह बीते दिनों को याद करवा देती है.



गिनी-चुनी संख्या में वाहनों का चलना, इक्का-दुक्का व्यक्तियों का टहलना, न के बराबर चार पहिया वाहनों का गुजरना, कोई शोर नहीं, गाड़ियों-दोपहिया वाहनों के हॉर्न का शोर नहीं, इंसानों की चीख-पुकार नहीं, कोई धक्का-मुक्की नहीं. ये सबकुछ देखकर अपने बचपन के दिन याद आ जाते हैं. 80 के दशक में अपने घर से जीआईसी पढ़ने के लिए जाने पर सड़कें कुछ इसी तरह की दिखाई देती थीं. दिन को खुले बाजार में भी उस समय लगभग ऐसी ही भीड़ हुआ करती थी. गिने चुने वाहन सड़कों पर अपना रोब दिखा रहे होते थे. सड़क पर उस समय साइकिल और रिक्शा का ही साम्राज्य हुआ करता था. दिन के अलावा कई बार रात को परिवार के साथ किसी कार्यक्रम में अथवा उरई की टाकीज में कोई फिल्म देखने जाने को मिल जाया करता था तो लगभग ऐसा ही सन्नाटा पसरा हुआ दिखाई देता था. अच्छे से याद है कि उन दिनों में भी गलियाँ निपट सूनी रहती थीं, आजकल भी सूनी दिख रही हैं. उस समय भी इक्का-दुक्का लोग सड़कों पर टहलते दिखते थे, आज भी वैसा ही मंजर दिखाई दे रहा है. उस समय भी शांत वातावरण मन को सुकून देता था कुछ ऐसा ही आज हो रहा है. वातावरण की ख़ामोशी, सन्नाटा, शोर-रहित सड़कें एक अलग तरह का आनंद दे रहीं हैं.

हमारे कुछ व्यापारी मित्र इस व्यवस्था से प्रसन्न दिखाई दे रहे हैं. उनका कहना है कि कोरोना काल के पहले आपस में व्यापारिक प्रतिद्वंद्विता होने के कारण दुकान खोले रखने की मजबूरी भी थी. आर्थिक लाभ को अधिकाधिक प्राप्त कर लेने की मानसिकता के कारण भी दुकान को खोलना आवश्यक समझ आता था. आज जबकि नियम के अनुसार सभी दुकानों को एक निश्चित समय पर बंद होना ही है. ऐसे में शाम का बहुत बड़ा भाग उनको अपने संबंधों का निर्वहन करने के लिए मिल रहा है. ये बात और है कि कोरोना काल चलने के कारण किसी तरह के बड़े आयोजन नहीं हो रहे हैं, शादी-विवाह संपन्न नहीं हो रहे हैं मगर मिलने-जुलने की व्यवस्था तो संपन्न हो ही जा रही है. मोहल्ले में आपस में शारीरिक दूरी का पालन करते हुए मिलना हो ही रहा है.

निश्चित ही ऐसी व्यवस्था से आर्थिक रूप से कुछ घाटा अवश्य ही व्यापारिक क्षेत्र से जुड़े लोगों को होगा मगर यदि इस व्यवस्था को एक नियम बनाकर चला जाये तो भविष्य में इसके सुखद परिणाम देखने को मिलेंगे.

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