09 जून 2020

न जाने कैसा रिश्ता रखा

कई बार विचार बनाने पड़ते हैं और कई बार स्वतः बनते जाते हैं. ज़िन्दगी के हर पल में कुछ न कुछ ऐसा घटित होता रहता है जिसे संजोया जाये तो पद्य या गद्य में कुछ न कुछ रचनात्मक अवश्य निकल आता है. कुछ ऐसा ही इधर घटित हुआ कि अचानक बैठे-बैठे ये रचना बन गई. नहीं जानकारी कि हिन्दी का, उर्दू का, गीत का, ग़ज़ल का क्या मीटर है, क्या बहर है. बस जैसा दिल कहता गया, गुनगुनाता गया लिख दिया. पढ़िए आप भी और रसास्वादन करिए.



न जाने कैसा रिश्ता रखा,

न करीब आए न फासला रखा।


मिलने आते सबसे छिप कर,
और हमसे भी परदा रखा।

चाहतें मोरपंख सपनों की,
नींद ने न कोई वास्ता रखा।

वो चाँद था या चेहरा उनका,
दुनिया को दीवाना बना रखा।

साथ भी और तन्हाई भी,
जान कर भी अनजाना रखा।


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#हिन्दी_ब्लॉगिंग

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