21 दिन के लॉकडाउन की घोषणा हुई तो बहुत से लोगों को लगा कि उनको घर में कैद
कर दिया गया है. प्रधानमंत्री के शब्द कुछ ऐसे थे भी कि लोगों ने इसे एक तरह का
कर्फ्यू ही समझा. समझना भी चाहिए था. खैर, चर्चा इसकी नहीं. लॉकडाउन का कौन,
कितना, किस तरह से पालन कर रहा, यह उसकी मानसिकता का परिचायक है. मंगलवार की रात
आठ बजे लॉकडाउन की घोषणा होने के बाद से अभी तक इस पोस्ट को लिखने तक हमारा अपने
घर के दरवाजे पर भी निकलना नहीं हुआ. आज, दोपहर महज आधा-एक मिनट को उस समय निकलना
हुआ जबकि हमारे बड़े भाई समान मित्र, जनपद के रंगकर्मी और समाजसेवी प्रभात तिवारी
अपने प्रयासों से कीटनाशक का छिड़काव करने हमारे मोहल्ले आये थे. इसके अलावा पिछले
पाँच दिन या कहें कि रविवार के एक दिनी जनता कर्फ्यू के बाद से हमने अपने घर की
देहरी को भी नहीं छुआ.
घर
में खुद को बंद करने की स्थिति एक हमारी अकेले नहीं वरन हमारे कई मित्रों की है.
इसमें कुछ मित्र तो ऐसे हैं जो सामान्य दिनों में चौबीस घंटे के लगभग पंद्रह बीस
घंटे घूमने का काम ही करते हैं. हमको भी इससे अलग नहीं गिना जा सकता है. अपने
कॉलेज समय के बाद का बहुतायत समय शहर में घूमते-टहलते, काम करते, गोष्ठियों,
बैठकों आदि में बीतता है. बहुत सा समय दोस्तों के साथ बैठकी में, अपने फोटोग्राफी
के शौक को पूरा करने में निकलता है. ऐसे सभी मित्रों को, हमारे घरवालों को,
जान-पहचान वालों को जो हमारी इस आदत को जानते हैं, आश्चर्य हो रहा है कि हम पिछले
कई दिन से घर के बाहर भी न निकले. हमारे अपने हिसाब से यह हमारे लिए कोई आश्चर्य
का मामला नहीं है. ऐसा इसलिए क्योंकि ऐसी एक लम्बी कसरत हम कोई डेढ़ दशक पहले कर
चुके हैं. अब ये बात शायद आप सबके लिए आश्चर्य की हो मगर यह सत्य है.
वर्ष
2005 की अप्रैल में ट्रेन दुर्घटना में बुरी तरह से घायल हो
जाने के बाद पूरे एक वर्ष तक पलंग पर ही पड़े रहे थे. पहला एक महीना अस्पताल के पलंग
पर, वहीं के कमरे के भीतर जहाँ कि यदा-कदा ही बाहर की रौशनी देखने को मिलती थी,
कमरे की खिड़की के सहारे ही. इसके बाद दो महीने कानपुर में अपने मामा जी के यहाँ
रहना हुआ. हॉस्पिटल से मामा के घर तक जाने की यात्रा में पूरे एक महीने के बाद
सूर्य की रौशनी देखे को मिली थी. दिन ऐसे चमकता हुआ लग रहा था जैसे कई-कई सूरज चमक
रहे हों. मामा के घर आने के बाद बाहर की रौशनी नियमित रूप से देखने को मिलती रही
मगर कहीं आना-जाना नहीं होता था. कभी-कभी जब बाहर निकलना हुआ तो वह भी अपने इलाज
के सन्दर्भ में. इसके पश्चात् उरई लौटने के बाद कमरे के बिस्तर पर शेष समय गुजरा. हालाँकि
इस दौरान घर के आँगन में, कभी किसी के मिलने आने पर बैठक में जाना व्हीलचेयर की
सहायता से हो जाया करता था. बीच में एक-दो साहित्यिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों में
सहभागिता करने के लिए छोटे भाइयों की सहायता से अवश्य ही निकलना हुआ मगर वह भी न
निकलने जैसा ही कहा जायेगा. दिसम्बर में उसी स्थिति में गाँधी महाविद्यालय में
मानदेय प्रवक्ता के रूप में कार्यभार
ग्रहण करने पर अवश्य ही कभी-कभी निकलना होने लगा.
उस
समय हमको मोबाइल से प्रतिबंधित कर दिया गया था. मोबाइल पर बहुत सीमित बात करवाई
जाती थी. इंटरनेट आज के जैसा न तो तेज था और न ही मुफ्त जैसा था. इसके अलावा उस
समय हमारे पास कम्प्यूटर भी नहीं था न ही लैपटॉप. सो जाहिर सी बात है कि ब्रॉडबैंड
या इंटरनेट जैसा भी कुछ होने का सवाल नहीं था. टीवी देखने की बहुत ज्यादा आदत या
कहें शौक न होने के कारण उसे देखना भी नहीं होता था. थोड़ी देर देखना भी सिरदर्द को
पैदा कर देता था. लिखने-पढ़ने का शौक भी बहुत दिनों तक पूरा नहीं हो पाया था. चोट
के चलते उँगलियाँ, कलाई बुरी तरह दर्द करती थी. पेन पकड़ना संभव ही नहीं हो पाता
था. ऐसी स्थिति देखकर खुद में विचार करते कि आगे लिखना संभव हो भी पायेगा या नहीं?
कुछ ऐसी हालत पढ़ने को लेकर भी थी. किसी भी किताब के दो-चार पेज पढ़ने के बाद ही सिर
चकराने लगता था. आँखों से पानी आने लगता था. कुछ महीनों के प्रयासों के बाद कलम
पकड़ पाना, लिख पाना संभव हुआ. लिखना संभव तो हो गया मगर बहुत से अक्षरों का स्वरूप
बदल गया. हस्तलिपि में भी कुछ परिवर्तन हो गया. आज डेढ़ दशक बाद भी बहुत देर लिखने
से कलाई, उँगलियाँ दर्द करने लगती हैं.
आज
पाँच-सात दिन घर में बैठे-बैठे हो गए. लिखने-पढ़ने के साथ-साथ स्केचिंग के पुराने
शौक को जिन्दा किया. फोटोग्राफी के शौक को अब कमरे के सीमित क्षेत्र में घरेलू
सामानों के साथ पूरा किया जा रहा है. बिटिया रानी के साथ उनके पौधों, गमलों के साथ
कुछ समय बिताया. यदा-कदा घर को सेनेटाइज करने का काम भी निपटा लिया जाता है. आज मोबाइल भी हाथ में है लैपटॉप भी साथ में है. इंटरनेट स्पीड के
साथ है. ब्रॉडबैंड भी काम कर रहा है. तमाम सोशल मीडिया मंच सक्रियता को गति दिए
हैं. तमाम सारे मोबाइल एप मनोरंजन का माध्यम बने हैं. अपने परिजनों, मित्रों,
परिचितों से लगातार संपर्क बना हुआ है. इन सबके कारण धैर्य, संयम बना हुआ है.
बोरियत जैसी अवश्य होती है मगर अपने ही पुराने दिन याद करते ही वह भी दूर हो जाती
है. उन दिनों की याद करते हैं तो आत्मविश्वास, आत्मबल बढ़ जाता है. दिल-दिमाग,
मन-मष्तिष्क इसी विश्वास के सहारे आगे बढ़ते हैं और कहते हैं कि जब वो दौर गुजर गया
तो ये दौर भी गुजर जाएगा.
.
#हिन्दी_ब्लॉगिंग
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें