आज
मोदी जी के उद्बोधन में एक अभिभावक जैसी संवेदना की झलक मिली. विगत लम्बे समय से
मोदी जी के लगभग हर एक उद्भोधन को, भाषण को सुना है मगर कभी भी उनको अटकते नहीं
देखा है. आज ऐसा नहीं था. धाराप्रवाह भाषण देने वाले मोदी जी आज न तो अपनी लय में
दिखे और न ही अपने अंदाज में. ऐसा नहीं कि ये उद्बोधन देश के नाम था, इसलिए वे
किसी तरह की गंभीरता ओढ़े हुए थे. मोदी जी अपने उद्बोधन को बहुत ही सरल, सहज अंदाज
में जनता के सामने रखते हैं. उनकी यही कला उनका दीवाना भी बनाती है. ऐसे में यदि
उनके उद्बोधन में रुकावट आ रही थी, एक तरह का विचलन था तो इसके पीछे की
भावनात्मकता समझनी चाहिए. उन लोगों को समझनी चाहिए जो अब भी कोरोना वायरस को मजाक
समझ रहे हैं. लॉकडाउन को तफरी समझ रहे हैं. समझ नहीं आ रहा कि आखिर हम कब संवेदित
होंगे.
मोदी
जी के उद्बोधन में जो अटकन थी वो आने वाले समय में दिखाई दे रही विभीषिका के बारे
में थी. वे अपने देश के नागरिकों का स्वभाव भली-भांति जानते हैं. उनके उद्बोधन के
समाप्त होते ही सड़कों पर, बाजारों में ऐसी भीड़ टूटी जैसे कि लगा कि 21 दिन का नहीं वरन 21 महीनों, सालों का लॉकडाउन होने जा
रहा है. ऐसा अचानक से क्या हो गया कि जिस लॉकडाउन की परवाह अभी तक कोई नागरिक नहीं
कर रहा था वह एकदम से सामान जुटाने में लग गया. भला हो उस व्यापारी का जो इस
विभीषिका में भी अपना लाभ सोच रहा है. कालाबाजारी सोच रहा है. मुनाफाखोरी सोच रहा
है. अभी शाम आठ बजे तक पाँच रुपये बिकने वाला आलू एकदम से पचास रुपये किलो बिकने
लगा. बाजारों से सामान गायब होने लगा. ये वही लोग हैं जो सोशल मीडिया पर पकिस्तान
से युद्ध करने की बात करते हैं. ये वही लोग हैं जो अपना खून बना देने तक की बात
किया करते हैं. आज एक अभिभावक जैसे व्यक्ति के सामने सब कुछ गायब हो गया.
आने
वाले 21 दिन परीक्षा है यहाँ के नागरिकों की. उन्हीं को तय
करना है कि मरना है या जिंदा रहना है. इस बात को शायद मोदी जी साफ़-साफ़ शब्दों में
नहीं कह सकते थे. वे आने वाले समय का संकट, उसकी विभीषिका और पीड़ा का एहसास कर पा
रहे थे. इसी कारण आज उनके शब्दों में एक
तरह की लाचारी भी दिखाई दी, एक तरह की पीड़ा भी, एक तरह की संवेदना भी. आगे आपकी
मर्जी कि इसी संवेदना के साथ आगे जाना है या चंद दिनों बाद संवेदना के शब्द-फूल की
चाहना है.
.#हिन्दी_ब्लॉगिंग
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