04 फ़रवरी 2020

कुछ याद न आया करे


याददाश्त का किसी भी व्यक्ति के जीवन में बड़ा ही महत्त्व माना गया है. ऐसा समझा जाता है कि जिसकी याददाश्त बहुत अच्छी होती है उसे बुद्धिमान कहा जाता है. ऐसे व्यक्तियों को सफलता प्राप्त करने से कोई नहीं रोक सकता है. किसी पुस्तक में पढ़ा भी था कि स्वामी विवेकानन्द अपने बचपन में किताब पढ़ते जा रहे थे और उसके पृष्ठ फाड़ कर फेंकते जा रहे थे. ऐसा करते देख उनके पिता ने इसका कारण पूछा तो नरेन्द्र बोले कि उनको किताब याद होती जा रही है. ऐसा सुनकर जब उनके पिता ने इस बात की सत्य जाँची तो वे आश्चर्यचकित रह गए. नरेन्द्र को किताब ज्यों की त्यों, शब्दशः याद थी. स्वामी विवेकानन्द की प्रतिभा, उनके बौद्धिक कौशल का लोहा तो सारी दुनिया आज भी मानती है. याददाश्त का इतना प्रबल रूप प्राप्त कर लेना हर एक के वश की बात नहीं होती है. किसी भी व्यक्ति के लिए आसान नहीं होता है अपनी याददाश्त को प्रभावी बनाये रख पाना. उम्र के अनुसार, कार्यक्षमता के हिसाब से, दिनचर्या के चलते भी व्यक्तियों की याददाश्त में विचलन देखने को मिलता है.


याददाश्त का उत्तम होना भले ही किसी भी व्यक्ति को शीर्ष पर पहुंचता हो मगर कई बिन्दुओं पर याददाश्त का अच्छा होना उस व्यक्ति के लिए सुखद नहीं होता है. सैद्धांतिक रूप से भले ही किसी भी व्यक्ति का जीवन बचपन, युवावस्था और वृद्धावस्था जैसे चरणों में बाँट दिया गया हो मगर व्यावहारिक रूप से उसका जीवन प्रतिपल एक नया चरण होता है. हर नए आने वाले पल में वह अपने जीवन को नए रूप में देखता है. ये और बात है कि आने वाले समय को वह वर्तमान पल की आपाधापी में महसूस नहीं कर पाता है, उसका एहसास नहीं कर पाता है. एक-एक पल किसी भी व्यक्ति के जीवन में अपनी अहम् भूमिका का निर्वहन करता है. ऐसे में उन व्यक्तियों के लिए अत्यंत कष्टकारी समय बार-बार सामने आता है जिनकी याददाश्त अच्छी होती है. कुछ भी न भूल पाने वाले व्यक्तियों के लिए अपने अतीत को लेकर आगे बढ़ना बहुत कठिन हो जाता है. असल में दिमाग किसी तरह का कोई कंप्यूटर अथवा मोबाइल नहीं कि जिसे जब मन आया फॉर्मेट कर दिया. दिमाग को बचपन से ही सक्रिय, सचेत, सजग बनाये जाने के कदम उठाये जाने लगते हैं. ऐसे में बहुत से लोगों का दिमाग अत्यंत सक्रिय अवस्था में बना रहता है. उनकी सोचने-समझने और याद करने की शक्ति भी अन्य लोगों से विलक्षण स्थिति में होती है. और मजे की बात यह कि अपने अतीत को लेकर ऐसे लोग ही सबसे ज्यादा परेशान रहते हैं.

अपने अतीत को कितना याद रखा जाये कितना भुलाया जाये यह व्यक्ति के हाथ में होना चाहिए. अपनी याददाश्त की क्रियाशीलता पर किसी व्यक्ति का अधिकार होना ही चाहिए. यादों का पिटारा किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को खुश कम रखता है, उसे रुलाता ज्यादा है. कई बार लगता है याददाश्त का सशक्त होना व्यक्ति की संवेदनशीलता, उसकी भावनात्मकता से भी जुड़ा हुआ मामला है. अक्सर देखने में आया है कि कोई व्यक्ति अपनी खुद की याददाश्त का कितना भी ख़राब होना बताये मगर यदि कोई घटना उसकी भावना से, उनकी संवेदना से जुड़ी होती है तो वह उसे बरसों-बरस याद रहती है. व्यक्तिगत तौर पर हमसे जुड़े हमारे मित्रों की याददाश्त, उनके क्रियाकलापों को देखकर अक्सर इस बिंदु की पुष्टि हुई है. ऐसे में यदि याददाश्त और भावनात्मकता का गहरा सम्बन्ध है तो व्यक्ति को बहुत ज्यादा भावनात्मक नहीं होना चाहिए. उसे अपनी सामर्थ्य और अपने व्यवहार के अनुसार ही अपनी भावनात्मकता का विस्तार करना चाहिए. समय के साथ व्यक्ति के संबंधों में भी परिवर्तन आता है, उनके निर्वहन में भी किसी न किसी तरह के बदलाव आते हैं. इस तरह के परिवर्तन उसकी यादों को, उसकी स्मृतियों को प्रभावित करते हैं. सशक्त याददाश्त के चलते, यादों के पल-प्रति-पल आसपास विचरण करने से परेशान होते व्यक्तियों को अपनी भावनात्मक्र पर अंकुश लगाना चाहिए. दिल-दिमाग न तो कंप्यूटर है और न ही कोई मशीन कि जिसे जब मन आया फॉर्मेट कर दिया. इसे स्वयं के व्यवहार से ही नियंत्रित किया जा सकता है.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें