01 फ़रवरी 2020

ज़िन्दगी से प्रतिद्वंद्विता में दोस्ती


आज शाम एकाएक अपने स्वभाव को लेकर, हमारे साथ जुड़े हुए लोगों के स्वभाव को लेकर अपने में विमर्श शुरू हुआ. बहुत से जाने-पहचाने चेहरे नजर के सामने आकर धुँधले हो गए. ऐसे चेहरे भी अब साफ़ नहीं दिखाई दे रहे थे, जिनको कभी अपने से दूर देखना नहीं सोचा था. समझ नहीं आया कि ऐसा होने में हम कहाँ तक गलत हैं. खुद का गलत होना इसलिए क्योंकि यदि हम गलत न होते तो हमारे साथ जुड़ा रहने वाला हमसे अचानक दूर क्यों हो जाता. कई बार हम अपने स्वभाव को देखते हैं और विचार करते हैं कि हम चाह कर भी अपने स्वभाव में कभी गंभीरता नहीं ला सके. जो पल अभी है, वही ज़िन्दगी है का फलसफा अपनाते हुए अपनी जीवन-यात्रा पर आगे बढ़ते रहे.इसका अर्थ ये नहीं कि हमारे द्वारा किसी कार्य को करने में, जिम्मेवारी का निर्वहन करने में, अपने उद्देश्य को पूरा करने में किसी तरफ की कोताही दिखाई जाती है. यह सब पूरी लगन और निष्ठा के साथ किया जाता है, पर हँसी-माजक के साथ, माहौल को हल्का-फुल्का बनाते हुए. पता नहीं क्यों गंभीर मुद्रा, हाव-भाव का लबादा ओढ़े, चेहरे पर जानबूझकर कठोरता चढ़ाये, होंठों को इतनी बुरी तरह कसे कि मुस्कान धोखे से ही न फिसल जाये, ऐसे लोग कभी नहीं सुहाए. हमने ज़िन्दगी को जितना गंभीरतारहित होकर, अल्हड़ता से, मौज-मस्ती के अंदाज में जीना चाहा, ज़िन्दगी उतनी ही गंभीरता से हमारा परीक्षण करती रही.


ऊहापोह की इस अवस्था में हम खुद को खुद के लिए खड़ा करते रहे. दोस्तों का, दोस्ती का साथ लेकर आगे बढ़ने की बात करते रहे मगर उसी समय समय ने करवट ली. ज़िन्दगी दोस्त के बजाय हमारी ही प्रतिद्वंद्वी बनकर सामने आई. दो पैरों से स्वतंत्र रूप से चलती ज़िन्दगी कृत्रिम आधार के सहारे आगे बढ़ने लगी. भागदौड़ में अंकुश लग गया. कार्य की तीव्रता में अवरोध आ गया. जनपद और जनपद के बाहर की सीमाओं को नापते कदम ठहर से गए मगर आत्मविश्वास कम न हुआ, कार्य-क्षमता प्रभावित नहीं हुई, उद्देश्यों से डिगना नहीं हुआ. बदलाव बहुत बड़ा हुआ मगर हमारा स्वभाव न बदला. गंभीरता अभी भी न आई. हँसी-मजाक अभी भी अपनी उसी अवस्था में है. ज़िदगी का फलसफा अभी भी वही है. इस बीच बहुत से ऐसे मित्र जिनके बारे में कभी कल्पना भी नहीं की थी कि वे छोड़ कर चले जायेंगे, हमसे बहुत दूर हो गए. ऐसी दोस्ती जो हमें अपने आपमें इसके लिए गौरवान्वित करती थी वह भी अचानक से बिना किसी बात के न जाने कहाँ गुम गो गई. परिचित बहुत बनाये मगर जिनको अभिन्न कह सकें, जिनको अपना कह सकें ऐसे मित्र बहुत कम बनाये. खुद बनाये कि जगह पर कहें कि स्वतः ही बन गए तो गलत न होगा, ऐसे मित्रों ने भी हमसे किनारा कर लिया. कारण समझ न आया. संभव है कि उनके पक्ष में उठा हमारा कोई कदम उनको लाभान्वित न कर पाया हो मगर हमारे अन्दर से कतई ऐसी भावना नहीं रही कि उनके साथ गलत हो. बहरहाल, ऐसे अनेक मित्र जितनी लम्बी समयावधि से हमसे जुड़े थे, उसके अनुपात में बहुत कम समय में ही निर्णय लेकर हमसे दूर हो गए.

ऐसा लग रहा है जैसे यह भी ज़िन्दगी और हमारी अपनी जंग है, अपनी प्रतिद्वंद्विता है. ज़िन्दगी और हम आज भी, अभी भी एक-दूसरे को जाँचने में लगे हैं. एक-दूसरे से प्रतिद्वंद्विता करने में लगे हैं. इसके बाद  भी सुकून इसका है कि बहुत से ऐसे मित्र जो अब मित्र की परिभाषा से बहुत ऊपर हम ही बन गए हैं, उनके और अपने अस्तित्व में कहीं भी हम अंतर नहीं कर पाते हैं, वे हमारे साथ हैं. उनका साथ प्रसन्नता देता है, सुख देता है मगर साथ में डराता भी है. डर उसी ज़िन्दगी के रुख का जिसके साथ हमारी प्रतिद्वंद्विता चल रही है. पता नहीं हमारा ही अस्तित्व कब तक हमारा बना रहे क्योंकि ऐसा उन मित्रों के साथ भी था जो अब हमारे नहीं हैं. फिलहाल खुद में, खुद के साथ व्यस्त हैं. हर फ़िक्र को धुंए में उड़ाता चला गया की फिलोसोफी के साथ ज़िन्दगी को जी रहे हैं. आगे देखिये क्या होता है? जीत-हार का समीकरण क्या होता है?

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