30 जनवरी 2020

पुरानी प्रकाशित रचनाएँ जल्द ही नए स्वरूप में


कई दिनों से अपने तमाम अधूरे कामों को पूरा करने के बारे में विचार किया जा रहा है. अनेक अधूरे कामों के बीच एक अधूरा काम पुरानी पुस्तकों का पुनः प्रकाशन करवाना भी है. असल में कुछ साल पहले दिमाग में एक खुरापात ने जन्म लिया, इसे खुरापात इसीलिए कहा जायेगा क्योंकि जिस काम का कोई ओर-छोर न हो उसे करना शुरू कर दिया जाये तो और क्या कहा जायेगा. बचपन से लेखन के शौक ने अनेकानेक रचनाओं को कागज़ पर उतार दिया था. आज भी तकनीकी के इस दौर में भले ही सोशल मीडिया का उपयोग हम भरपूर तरीके से कर रहे हैं मगर उस दौर में जबकि कम्प्यूटर, इंटरनेट हमारे लिए सिर्फ ख्वाब था, तब हम कागजों पर ही अपने विचारों की नाव तैराते रहते थे. इसी में गद्य, पद्य की अनेक रचनाओं का जन्म हुआ. कहानी, कविताएँ, ग़ज़ल, लघुकथा, नाटक, लेख, शोध-आलेख, यात्रा-वृतांत, संस्मरण आदि-आदि का लिखना लगातार और नियमित रूप से होता रहा.


कागज पर कागज अपनी-अपनी फाइल में जगह पाते जा रहे थे. कविताओं, ग़ज़लों वाली डायरियाँ लगातार बढ़ती जा रही थीं. ऐसे में दिमाग ने सनकाया कि इनको प्रकाशित करवाया जाये. ऐसे घर में सहेजे-सहेजे इनसे किसी का लाभ होने वाला नहीं है. उस विचार के आने के बाद भी कहीं यह विचार नहीं जन्मा कि इनके प्रकाशन का कोई व्यावसायिक इस्तेमाल करना है. स्वान्तः सुखाय, लेखन का शौक इतनी रचनाओं की प्रक्रिया से हमें खुद गुजार देगा ये भी कभी नहीं सोचा था. अपनी रचनाओं की इतनी बड़ी संख्या के बारे में इसलिए भी नहीं सोचा था क्योंकि पढ़ाई के दौर में एक लम्बा समय ऐसा भी आया था जबकि लिखना बिलकुल बंद कर दिया था. अब जबकि दिमाग में कीड़ा कुलबुलाया, लेखन को सबके बीच लाने की मंशा बनी तो इधर-उधर से जुटाए गए नगण्य से खजाने से कभी-कभी प्रकाशन का खेल भी खेल लिया गया. जेब इतनी भारी नहीं रहती थी कि बाहर किसी बड़े-छोटे प्रकाशक की तरफ देख भी सकते और अपने शौक को किसी के एहसान के साथ परवान चढ़ाने की मानसिकता न होने के कारण किसी से इस बारे में बहुत चर्चा भी नहीं की. 

अत्यल्प संसाधनों के द्वारा अत्यंत कम संख्या में प्रतियों का प्रकाशन स्थानीय स्तर पर उरई में ही करवाया जाता रहता. आपस के लोगों में, परिचितों में, उपहार के रूप में, कभी आदान-प्रदान के रूप में इन पुस्तकों का वितरण होता रहा. असल में पुस्तकों के लघु-आकार में होने के कारण, सामान्य सी साज-सज्जा के कारण और हमारा खुद का व्यावसायिक मानसिकता से मुक्त होने के कारण उनको बाजार की तरफ नहीं ले जा सके. बाजार ले जाने की मंशा आज भी नहीं है. तकनीकी के आज के दौर में अपनी उन्हीं सारी पुस्तकों को इंटरनेट के द्वारा आप सभी के बीच लाने का प्रयास है. उस समय भी पुस्तक प्रकाशन की मंशा अपनी रचनाओं को अपने लोगों के बीच भेजने की थी, आज भी यही मानसिकता है. इंटरनेट के कारण, सोशल मीडिया के कारण आज हमारे अपनों की संख्या में वृद्धि हुई है. ऐसे में वे सभी लोग और हमारी रचनाएँ आपस में एक-दूसरे से परिचित हो सकें, ऐसी सोच है. इसी सोच के चलते पुरानी रचनाओं को इकठ्ठा करके आप सबके बीच लाने का एक और प्रयास किया जाना है.


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