08 जनवरी 2020

फिल्म नहीं उसके दर्द के एहसास ने लोगों को जोड़ा है


जिस जेएनयू मारपीट विवाद को सरकार, शासन, प्रशासन, मीडिया शांत नहीं कर पा रहे थे उसे एक झटके में फिल्म अभिनेत्री दीपिका ने खामोश कर दिया. जेएनयू में हुए मारपीट सम्बन्धी विवाद के बाद दीपिका कथित टुकड़े गैंग से मिलने विश्वविद्यालय पहुँच गईं. दीपिका का वहाँ पहुँचना हुआ नहीं कि एक ऐसे गुट द्वारा, जो टुकड़े गिरोह का विरोध करता रहा है, दीपिका की फिल्म छपाक का बहिष्कार करने का ऐलान कर दिया. इस बहिष्कार की घोषणा सोशल मीडिया के द्वारा सबसे अधिक चर्चा में आ गई. दीपिका की तरफ से कुछ टिप्पणी आती उसके पहले ऐसे गुट के विचार सामने आने लगे जो किसी न किसी रूप में कथित गिरोह के पक्षधर बने हुए हैं. अचानक से इस गुट को समझ आने लगा कि यह फिल्म जागरूकता के लिए बनाई गई है. इसी गुट को अचानक से आभास हुआ कि इस फिल्म का मकसद एक एसिड अटैक पीड़ित के दर्द को, उसकी पीड़ा को दिखाना है.


दीपिका के इस कदम के क्या परिणाम होंगे, एक गुट द्वारा फिल्म बहिष्कार का क्या अंजाम होगा यह तो फिल्म रिलीज के बाद पता चलेगा. इसके बाद भी यदि संक्षेप में सारे घटनाक्रम का अवलोकन किया जाये तो साफ़ सी बात है कि फिल्म का निर्माण किसी भी रूप में सामाजिक जागरूकता के लिए, सामाजिक सन्देश देने के लिए, लक्ष्मी अग्रवाल की सहायता के लिए या फिर किसी अन्य एसिड अटैक पीड़ित की सहायता के लिए नहीं किया गया है. असल में छपाक लक्ष्मी अग्रवाल की कहानी है जो एसिड हमले का शिकार हुई थी. विगत कई वर्षों में उसने व्यक्तिगत रूप से अथक मेहनत की है, अपनी जिजीविषा को समाप्त न होने दिया है, अपने संघर्ष को न केवल जिंदा रखा है बल्कि उसे खुद में जिया भी है. लगभग दो वर्ष पहले एक दौर ऐसा भी आया था जबकि उसके सामने खुद के और अपने बेटी के भरण-पोषण की समस्या खड़ी हुई थी. जिस व्यक्ति के सहारे उसने अपनी ज़िन्दगी की जंग को आगे तक ले जाने का विचार बना रखा था वही उसे मझधार में छोड़कर आगे निकल गया था. यह वह दौर था जबकि लक्ष्मी अपने संघर्ष को सोशल मीडिया के द्वारा, अपने मित्रों के द्वारा लगातार चर्चा में बनाये हुए थी. स्टॉप सेल एसिड (#stopsaleacid) अभियान के सहारे उसने हजारों लोगों से खुद को जोड़ने का काम किया. हजारों लोग बिना किस फिल्म के द्वारा संवेदित हुए, खुद पर एसिड की तीव्रता का एहसास किये बिना ही अनेक लोग खुद लक्ष्मी के संपर्क में आये, उसके अभियान का हिस्सा बने. हम स्वयं भी उसके इस अभियान का हिस्सा बने. तब कहीं भी न फिल्म का विचार था और न ही किसी ऐसे माध्यम के द्वारा सामाजिक जागरूकता लाने का, सामाजिक सन्देश देने का विचार था. 

असल में फिल्मकारों ने हालिया दौर में ऐसे मुद्दों पर फिल्म बनाना शुरू कर दिया है जो किसी न किसी रूप में जनता को आंदोलित किये हों. ऐसे किसी भी मुद्दे पर जिससे जनता, समाज सीधे तौर पर जुड़ता दिखा है, फिल्मकारों ने उस विषय पर तत्काल फिल्म बनाकर पेश कर दी. छपाक भी उसी रणनीति का एक हिस्सा मात्र है. यह विचार करने वाली बात है कि जिस लक्ष्मी अग्रवाल के साथ एसिड हमले की घटना वर्ष 2005 की है उसके लिए फिल्म इंडस्ट्री आज वर्ष 2019 में जाग रही है. आखिर ऐसा क्यों? ऐसी देरी क्यों? कहीं न कहीं इसके पीछे लक्ष्मी का वह संघर्ष का उत्कर्ष है जो विगत दो सालों में हुआ है. उसकी कहानी कोई छिपी कहानी नहीं थी जो एकाएक आज सामने आई. उसका संघर्ष कोई एक दिन का संघर्ष नहीं जो अचानक सामने आ गया. असल में स्टॉप सेल एसिड अभियान के द्वारा लक्ष्मी ने देशव्यापी सन्देश देने का काम किया. इस दौरान उसके संपर्क में अनेक लोग आये. अनेक स्थानों पर, शहरों में उसके समर्थन में छोटे-बड़े आयोजन हुए. उसकी इस प्रसिद्धि को फिल्म इंडस्ट्री ने तत्काल अपने पक्ष में भुनाने का विचार करके सम्बंधित कदम उठा डाला.

अब जबकि दीपिका के कदम से जेएनयू मारपीट विवाद शांत हो गया है और फिल्म के बहिष्कार का विवाद छिड़ गया है तब यह भी जानना आवश्यक हो जाता है कि क्या महज फिल्म ही अब सामाजिक सन्देश देने का काम करेंगी? आखिर जब फिल्म न बनी थी तब कैसे हजारों लोग लक्ष्मी के दर्द का एहसास करते हुए उसके साथ जुड़ गए थे? पूरी तरह से व्यावसायिक मुद्दे को महज व्यावसायिक रूप में ही देखा जाना चाहिए. एक पक्ष है जो किसी भी रूप में समाज में अपनी फिल्म की पब्लिसिटी चाहता है. एक पक्ष है जो कथित गैंग के चलते उस फिल्म का बहिष्कार कर रहा है. एक पक्ष है जो इस बहिष्कार का विरोध करके सरकार पर निशाना साधने का काम कर रहा है. इन सारे पक्षों के बीच लक्ष्मी को अकेले नहीं छोड़ना है क्योंकि उसके संघर्ष की अपनी ही कहानी है जो किसी भी फिल्म से अपना अंजाम नहीं पा सकती.

2 टिप्‍पणियां:

  1. प्रशंसनीय टिप्पणी। बेशक फिल्म व फिल्मकार की दृष्टि समाज से कहीं ज्यादा बाजार पर है किंतु यदि छपाक फिल्म सामाजिक चेतना को जरा भी झकझोरती है, तो यह श्लाघनीय प्रयास है।

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  2. प्रशंसनीय टिप्पणी। बेशक फिल्म व फिल्मकार की दृष्टि समाज से कहीं ज्यादा बाजार पर है किंतु यदि छपाक फिल्म सामाजिक चेतना को जरा भी झकझोरती है, तो यह श्लाघनीय प्रयास है।

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