चुनाव
की तिथियाँ घोषित होने के आसार पहले से ही थे और उसी के हेरफेर में आखिरकार उत्पाती
गैंग, लोटा गैंग ने अपना कारनामा दिखा दिया. जेएनयू में पंजीकरण के नाम पर उत्पात
किया गया उसके बाद उन्हीं उत्पातियों को अपनी तरह से दूसरे गैंग ने सबक भी सिखाया.
पंजीकरण रोकने को मचा उत्पात किसी भी तरह से सुर्ख़ियों में नहीं आ सका मगर उसकी
प्रतिक्रिया में जब हंगामा मचा तो सबकी निगाहों में आ गया. खून-खराबा हुआ, लड़कियों
से, शिक्षकों से भी हाथापाई हुई. दोनों पक्ष अपनी-अपनी तरह से अपने-अपने तर्क रख
रहे हैं. बहरहाल, ये हंगामा अब विश्वविद्यालय से संदर्भित कम केन्द्र सरकार से
संदर्भित अधिक हो गया है. विश्वविद्यालय के विद्यार्थी गुटों की आपसी तनातनी से
अधिक ये केन्द्र सरकार के निर्णयों के विरोध का हो गया है. यदि ऐसा न होता तो फिर उत्पात
के बाद बामपंथियों द्वारा फ्री कश्मीर, हिन्दू राष्ट्र विरोधी, ब्राह्मण विरोधी,
हिंदुत्व विरोधी नारे क्यों लगाये गए? स्पष्ट सी बात है कि इस उत्पात के बहाने
बामपंथियों ने या कहें कि भाजपा-विरोधियों ने चुनावी रंगत को जमाना शुरू कर दिया
है.
यदि
इस हंगामे को, मारपीट को महज विद्यार्थी गुटों की लड़ाई माना जाये तो वे सारे लोग
जो किसी न किसी रूप से हॉस्टल से अथवा विश्वविद्यालय की राजनीति के संपर्क में रहे
हैं सहजता से बता सकते हैं कि ये हंगामा विद्यार्थियों के नाम पर राजनीतिक रोटियां
सेंकने के लिए करवाया गया है. यदि ये हंगामा विद्यार्थियों के आपसी तनाव का, विभेद
का मसला है तो इसमें वे राजनीतिज्ञ शामिल क्यों हुए जो अब किसी भी रूप में
विश्वविद्यालय का हिस्सा नहीं हैं? इस संघर्ष में क्यों वे लोग शामिल होते चले जा
रहे हैं जिनका न तो शिक्षा से कोई लेना-देना है और न ही शैक्षिक संस्थान से?
स्पष्ट है कि ये दो विद्यार्थी गुटों का नहीं वरन राजनीति का उत्पात है. जो लोग भी
हॉस्टल की जीवन-शैली से परिचित रहे होंगे, कॉलेज की गुटबंदी को जिसने पास से देखा
होगा उसके लिए समझना आसान है कि ऐसे संघर्ष, ऐसी मारपीट आये दिन गुटों में होती रहती
है. किसी दिन कोई एक गुट हावी रहता है, किसी दिन दूसरा गुट हावी हो जाता है. इस
संघर्ष में, इस तनाव में किसी तरह का ऐसा मुद्दा मुख्य नहीं होता है जैसा कि इस
उत्पात के बाद जेएनयू में दिख रहा है.
इस
तरह के तनाव, उत्पात जहाँ राजनीति के चलते बढ़ते जा रहे हैं वहीं इनके पीछे मीडिया
का भी हाथ है. इसमें सोशल मीडिया को कतई दोषमुक्त नहीं कहा जा सकता है.
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, प्रिंट मीडिया से ज्यादा दोषी तो वर्तमान में सोशल मीडिया ही
है, ऐसे तनाव, संघर्ष के लिए. हर हाथ मोबाइल से लैस है. ऐसे में एक व्यक्ति उत्पात
को अंजाम दे रहा होता है, दूसरा व्यक्ति उसको सोशल मीडिया पर पोस्ट करने में लगा
होता है, तीसरा व्यक्ति उसे शेयर करके उसका फैलाव करता है तो चौथा व्यक्ति उस पर आपत्तिजनक
टिप्पणी करके उत्पात को भड़काने का काम करता है. ऐसे न जाने कितने-कितने ग्रुप
छोटे-बड़े रूप में बड़े योजनाबद्ध तरीके से कुत्सित मंसूबों को सफल बनाने के प्रयास
करते रहते हैं. समाज में लोगों के बीच आग लगाने का काम करते हैं. वर्तमान में
जेएनयू विवाद के पीछे विशुद्ध रूप से दिल्ली विधानसभा का होने वाला चुनाव है. इस
चुनाव के चलते विद्यार्थियों की आड़ में केन्द्र सरकार के निर्णयों का विरोध करने और
मतदाताओं के बीच नकारात्मक सन्देश प्रसारित करने की स्पष्ट मंशा दिख रही है.
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