02 अक्तूबर 2019

दरकना एक और पारिवारिक आधार-स्तम्भ का


परिवार में कुछ लोग ऐसे होते हैं जो अपने आपमें एक आधार स्तम्भ होते हैं. उनके न कहने के बाद भी वे किसी न किसी रूप में परिवार को एकसूत्र में जोड़े रखने का काम करते हैं. परिवार की मान-मर्यादा को, उसकी प्रतिष्ठा को, उसके वर्चस्व को ऐसे ही लोगों के द्वारा स्वतः ही स्थापना मिलती रहती है. ऐसी स्थिति में जबकि परिवार का नाम क्षेत्र में हो, क्षेत्र के आसपास भी हो, उसके पुरखों का अपना रसूख, अपनी इज्जत, उनका नाम स्थापित हो तब ऐसे लोगों द्वारा स्वतः ही उस मान-सम्मान में, प्रतिष्ठा में वृद्धि की जाती रहती है. परिवार की पहचान का ये सदस्य आधार बनते हैं. दसियों लोगों के होने के बाद भी ऐसे सदस्य परिवार की पहचान बनते हैं. हमारा परिवार भी अपने क्षेत्र में दशकों से अपनी एक छाप बनाये हुए है. इसमें परिवार की एकजुटता भी बहुत मायने रखती है. कई-कई पीढ़ियों के बाद भी यदि परिवार का सम्मान, प्रतिष्ठा बनी हुई है तो उसके पीछे हम सब सदस्यों का एकजुट होना है. 

समय के साथ प्रकृति का नियम परिवार पर भी लागू होता रहा. बुजुर्ग परिजन अपने संस्कार, अपनी संस्कृति को अगली पीढ़ी को हस्तांतरित करते रहे और स्वयं अनंत यात्रा को जाते रहे. बुजुर्गों का चले जाना परिवार में एक खालीपन लाता रहा मगर उस खालीपन को किसी न किसी सदस्य द्वारा स्वतः ही भरा जाता रहा. इसके लिए परिवार की तरफ से कभी कोई प्रयास भी नहीं किये गए. कभी किसी तरह का समर्थन न व्यक्त किया गया, न कभी विरोध जैसी स्थिति दिखाई दी. विरासतन एक परिपाटी परिवार में चलती चली आई और उसका पालन भी होता रहा. बहुत अच्छे से याद है कि गाँव के सैकड़ों किमी दूर भी अपने बाबा के बजाय अपने बड़े बाबा (हमारे बाबा के बड़े भाई) के नाम से अपना परिचय हम देते रहे हैं. ग्वालियर में पढ़ने के दौरान अनेक अवसर ऐसे आये जबकि वहाँ और वहाँ के आसपास के क्षेत्रों में हमारा परिचय बड़े बाबा के नाम पर स्थापित हुआ.

बाबा लोगों के गुजर जाने के बाद ऐसी स्थिति हमारे सामने आई कि हमें अपना परिचय देना पड़ा तो ताऊजी और पिताजी का नाम ही सहारा बना. गाँव में किसी भी तरह की छुटपुट विवाद की स्थिति में ताऊजी और पिताजी के नाम ने उन विवादों को स्वतः ही हल कर दिया. कालांतर में परिवार ताऊजी और पिताजी से विहीन हुआ. उस समय भी लगा कि अब गाँव में परिवार की स्थिति को, उसकी मान-मर्यादा को किसके नाम पर स्थापना मिलेगी? जैसा कि अभी तक होता आया था, अबकी भी ऐसा हुआ. स्वतः ही हमारी पीढ़ी के सबसे बड़े भाई हेमंत भाईसाहब अपने आप नेतृत्व करते दिखे. न परिवार में किसी तरह का विवाद हुआ, न कोई मीटिंग हुई, न किसी तरह की पंचायत. कालचक्र चलता हुआ जैसे अपने आप ही हेमन्त भाईसाहब (मुन्ना भाईसाहब) के सामने खड़ा हो गया. गाँव और उसके आसपास की स्थितियों में हेमन्त भाईसाहब पारिवारिक मर्यादा के साथ सबके बीच मौजूद रहने लगे. घर, जमीन, खेती सहित अनेक स्थितियां जैसे भाईसाहब के नाम से ही अपने आप सहज रूप में स्वीकार होने लगीं. निश्चिंतता रहती कि भाईसाहब हैं इसलिए किसी तरह का विवाद न तो गाँव में होगा और न ही आसपास क्षेत्र में. ऐसा होता भी, उनके नाम से ही बहुत सी समस्याएं अपने आप समाधान की तरफ मुड़ जातीं.

कालचक्र का घूमना जारी था. पीढ़ियों से चलता हुआ वह अपने साथ अबकी रुका तो हमारे मुन्ना भाईसाहब को अपने साथ ले जाने के लिए. प्रकृति के नियम का पालन सबको करना ही होता है, हमारे भाईसाहब भी उससे बंधे हुए थे. बिना किसी से कुछ कहे, बिना अपनी जिम्मेवारी को किसी को हस्तांतरित किये ख़ामोशी से काल के साथ अनंत यात्रा को निकल गए. परिवार के बुजुर्गों के साथ अपने को शामिल कर गए. एक सूनापन परिवार में समझ आ रहा है. परिवार की आन-बान-शान की जिम्मेवारी अब किसके सिर पर आएगी? अब कालचक्र स्वतः किसका चयन करेगा परिवार के नाम को आगे बढ़ाने के लिए. परिवार की सदियों पुरानी मान-मर्यादा का सञ्चालन, उसका निर्वहन अब किसके द्वारा किया जायेगा, किसके नाम के द्वारा किया जायेगा यह भविष्य के गर्भ में है. फ़िलहाल एक सूनेपन के साथ समूचा परिवार आँखों में नमी लेकर ख़ामोशी से बैठा है.

सादर नमन, श्रद्धांजलि मुन्ना (हेमन्त) भाईसाहब को.

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