नेरेटिव सेट करना
सुना है? बिलकुल सुना
होगा क्योंकि चौबीस घंटे तो मोबाइल हाथ में लिए सोशल मीडिया पर एक्टिव रहना होता
है.
आजकल एक नेरेटिव
सेट किया जा रहा है बारातियों की संख्या निर्धारित करने का. और हिन्दू ही लगे हैं
दे दनादन इसे शेयर करने में, पोस्ट करने में. हम नहीं कहते कि किसी दूसरे धर्म के रीति-रिवाजों के बारे
में सोचो या पोस्ट करो. काहे कि ये औकात की बात होती है. जिनकी औकात में कपड़े नाप
से सिलवाने की न हो वे क्या औकात रखेंगे हजारों-हजार लोगों के स्वागत की.
किसी समय में सुना
था कि महाराजा सिंधिया (माधवराज) की बेटी की शादी में पूरे ग्वालियर में मुनादी
हुई थी लगातार सात दिनों तक सम्पूर्ण ग्वालियर के भोज की. आखिर ऐसी औकात भी तो हो.
चलिए, एक मिनट को मान लें कि कम बाराती
लाने वाली पोस्ट के पीछे कोई नेरेटिव नहीं, किसी तरह का कोई
पूर्वाग्रह नहीं, तो भी किसी भी बारात का स्वागत का इंतजाम,
खुद लड़की वालों की अपनी व्यवस्था का इंतजाम लड़की वाले ही करते हैं.
एक पल को यहाँ मान
लें कि लड़के वालों के दबाव में लड़की वालों ने ऐसा किया होगा मगर त्रयोदशी, जन्मदिन, वैवाहिक
वर्षगाँठ तो आपके नितांत व्यक्तिगत और एकल अधिकार वाले आयोजन हैं. इनको काहे इतनी
तड़क-भड़क से मनाया जाता है? क्यों त्रयोदशी के लिए
सैकड़ों-हजारों की संख्या में कार्ड बाँटे जाते हैं? क्या
त्रयोदशी संस्कार के लिए भी बाराती लाये जाते हैं?
इस तरह के नेरेटिव
से आज बचने की आवश्यकता है. बेवक़ूफ़ हिन्दू इसी में फँस जाता है और अपना ही बुरा कर
बैठता है.
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