03 अगस्त 2019

मामुलिया के आए लिबउआ, ठुमक चली मेरी मामुलिया

बुन्देलखण्ड क्षेत्र सदैव से अपने ताप के लिए जाना जाता रहा है. यहाँ की भीषण गर्मी, तपती दोपहरिया जैसे सबकुछ आग लगाने को आमादा रहती है. इसी जानलेवा गर्मी के बाद जब बारिश की फुहार लोगों के मन-मष्तिष्क को झंकृत करती है तो सभी लोग मगन हो उठते हैं. बारिश की बूँदें तपते बुन्देलखण्ड की न केवल धरती को वरन जनमानस को भी अपने आगोश में ले लेती है. समाज में रसमय, मधुर एवं प्रेम से सुसज्जित भावबोध का निर्माण होता है और स्वयं प्रकृति मनमोहक वातावरण का सृजन करती है. इसी सुरम्य वातावरण में बुन्देली बालिकाओं का प्रसिद्द लोकोत्सव मामुलिया अथवा महबुलिया का प्रारम्भ होता है. बुन्देली लोक-कला मामुलिया में लोकमानस की कलात्मकता के दर्शन होते हैं. यह जनभावना तथा लोक कला का अनुपम उदाहरण मन जाता है. बुन्देलखण्ड क्षेत्र में यह खेल अविवाहित अथवा क्वांरी कन्याओं द्वारा खेला जाता है. इसका मुख्य उद्देश्य समाज को यह सन्देश देना होता है कि दुखों में भी प्रसन्नता के साथ जीवन व्यतीत किया जा सकता है. 



मामुलिया खेल में कन्यायें एक कांटेदार टहनी को अलंकृत करने का कार्य करती हैं. इसके लिए सबसे पहले एक कँटीली टहनी की स्थापना की जाती है. इसके बाद उसका अलंकरण किया जाता है. अलंकृत करने के दौरान उस टहनी में जितने भी काँटे होते हैं उन सभी काँटों पर अनेक प्रकार के फूल लगाये जाते हैं. इस तरह के पुष्प अलंकरण से वह कँटीली टहनी का एक फूल भरी शाखा के रूप में दिखाई देने लगती है. मनमोहक फूलों के सज जाने से अपने आपमें एक तरह की सुन्दरता आसपास दिखाई देने लगती है. उस कंटीली शाखा को जिसमें कि फूलों का अलंकरण कर दिया जाता है, उसी को मामुलिया कहते हैं. इसके अंलकरण के समय सभी बालिकायें गीत भी गाती जाती हैं. यह पूरा कार्य हिन्दू महीने के अनुसार आश्विन मास (अंग्रेजी महीनों के अनुसार सितम्बर-अक्टूबर) के कृष्ण पक्ष में साफ़-सुथरे स्थान, जिसे कि गोबर से लीप कर चौक से पूरा जाता है, पर संपन्न किया जाता है. इस स्थान पर मामुलिया की स्थापना या कि उसे प्रतिष्ठित करने के बाद हल्दी, अक्षत, पुष्पादि से उसकी पूजा की जाती है. इस तरह का अनुष्ठान पंद्रह दिन तक चलता है. पंद्रह दिन बाद अमावस की शाम को वे कन्यायें गीत मामुलिया के आये लिबउआ, ठुमक चली मोरी मामुलिया गाती हुईं अपने आसपास की नदी, तालाब आदि तक जाती हैं. यहाँ पर गाते-बजाते हुए उस पुष्पयुक्त शाखा का जल में विसर्जन कर दिया जाता है.

देखा जाये तो मामुलिया का लोकोत्सव अथवा खेल अपने आपमें विशुद्ध दार्शनिकता का समावेश किये हुए है. प्रतीकात्मक रूप में फूलों को सुख और काँटों को दुख माना गया है. इन्हीं से जीवन का निर्माण समझा जाता है. यह एक तरह का दर्शन ही है कि हम अपने जीवन को सजाने का कार्य करते रहते हैं और एक दिन उसको विदा कराने का क्षण आ जाता है. जीवन की इस क्षणभंगुरता को एक खेल के माध्यम से सहजता से बचपन में ही समझा दिया जाता है. इसे महज एक खेल नहीं वरन बुन्देलखण्ड में बचपन से ही संस्कारों, संस्कृति की शिक्षा देने का माध्यम समझा जा सकता है.

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