छोटे
में जब ये गीत सुना करते थे ‘तुझसे नाराज नहीं ज़िन्दगी, हैरान हूँ मैं, तेरे मासूम
सवालों से परेशान हूँ मैं’ तो समझ नहीं पाते थे कि ऐसे कौन से सवाल ज़िन्दगी पूछती
है. उस समय उम्र भले कम थी मगर ये समझ आता था कि ज़िन्दगी और मौत क्या है. उम्र
बढ़ती गई और इस गीत के मायने भी समझ आते गए. गीत के मायने समझ आने के साथ समझ आये
ज़िन्दगी के सवाल. वे सवाल जो ज़िन्दगी लगातार पूछती रहती है. इधर उसके पूछे एक सवाल
का जवाब दिया नहीं कि उसने तुरंत दूसरा सवाल सामने रख दिया. ज़िन्दगी के द्वारा
सवालों की श्रंखला समाप्त होती नहीं है, बल्कि समय के साथ सवालों में क्लिष्टता
आती जाती है. ज़िन्दगी के सवालों की क्लिष्टता उस समय और बढ़ जाती है जबकि सबकुछ
जानते-समझते होने के बाद भी व्यक्ति कुछ न कर पाने की स्थिति में होता है. ज़िन्दगी
में सबसे कठिन समय यही होता है जबकि ज़िन्दगी के दिए गए सवालों का हल व्यक्ति के
पास है मगर हालात उसे अवसर प्रदान नहीं करते कि वह उन सवालों का जवाब दे सके.
ज़िन्दगी
का सवाल करते जाना किसलिए होता है, ये कभी समझ नहीं आया. उस समय भी समझ नहीं आता
था जबकि ज़िन्दगी के सवाल क्लिष्ट नहीं हुआ करते थे, आज भी समझ नहीं आया जबकि ज़िन्दगी
खुद एक सवाल बन गई है. हर एक पल के बाद, हर एक स्थिति के बाद, हर एक सवाल के बाद
खुद से ही कई सारे सवाल उपजते हैं क्यों, कैसे, किसलिए, कब तक? ऐसे सवालों के बीच लगता है जैसे ज़िन्दगी ने सवाल
करना छोड़ दिया है वरन अब वह खुद ही सवाल बन गई है. यदि यही ज़िन्दगी है तो फिर
ज़िन्दगी के सवाल क्या हैं और यदि यही सवाल हैं तो फिर ज़िन्दगी कहाँ है? क्या
ज़िन्दगी का अर्थ सिर्फ और सिर्फ सवालों के जवाब खोजते रहना है? क्या ज़िन्दगी का
अर्थ सिर्फ और सिर्फ हालातों को नियंत्रित करते रहना है? क्या ज़िन्दगी का अर्थ सिर्फ
और सिर्फ समायोजन खोजते रहना है. लगता है कि ऐसे हालातों के साथ चलते-चलते व्यक्ति
नितांत अकेला रह जाता होगा. हालातों को नियंत्रित करते-करते कई बार वह खुद ही
अनियंत्रित हो जाता होगा. कई बार समायोजित होने की लालसा में उसका खुद से सामंजस्य
टूट जाता होगा. यदि वाकई ऐसा होता होगा तो फिर वह ज़िन्दगी कैसे? यदि वाकई ऐसा होता
होगा तो ऐसा व्यक्ति ज़िन्दगी से हैरान भी रहता होगा, परेशान भी रहता होगा.
ज़िन्दगी
के सवालों की दौड़ में जवाब खोजने का काम चलता रहता है. ज़िदगी आगे बढ़ती जाती है और
व्यक्ति कहीं पीछे छूट जाता है. यही पीछे छूट जाना समाज की निगाह में किसी व्यक्ति
की, किसी सपने की, किसी आकांक्षा की मृत्यु होती है. व्यक्ति इसे समझे बिना बस
ज़िन्दगी के सवालों को हल करने की जद्दोजहद में लगा रहता है, बिना इस बात की परवाह
किये कि कहीं ज़िन्दगी उसे छोड़कर आगे तो नहीं निकली जा रही. ज़िन्दगी के सवालों को
खोजने के क्रम में व्यक्ति को ज़िन्दगी के साथ तालमेल बिठाते हुए आगे बढ़ना चाहिए.
कोशिश करनी चाहिए कि ज़िन्दगी उसे छोड़कर आगे न निकले. यही स्थिति ऐसी होती है जबकि
व्यक्ति ज़िन्दगी के सवालों को खोज लेता है और ज़िन्दगी को सवाल बनने से भी रोक लेता
है.
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