सामाजिक
बदलाव के दौर में शादियों के आयोजन में भी बदलाव देखने को मिलने लगे हैं. विवाह का
निर्धारण होने के पहले दिन से लेकर विवाह होने के अंतिम दिन तक की गतिविधियाँ भी
तमाम सारे बदलाव के दौर से गुजरने लगी हैं. दूल्हा, दुल्हन का साज-श्रृंगार तो इन
बदलाव का सबसे बड़ा शिकार हुआ है. इसके अलावा निमंत्रण-पत्र, सजावट, खान-पान आदि में
भी जबरदस्त बदलाव देखने को मिल रहे हैं. ये सारे बदलाव ऐसे हैं जो दोनों परिवारों
की ख़ुशी से सहज रूप में स्वीकार होते हैं. इन्हीं बदलावों के बीच एक बदलाव ऐसा
देखने को मिल रहा है जो बदलाव का सहज स्वीकार स्वरूप होने के बजाय एक तरह का दबाव
सा नजर आता है. एक ऐसा दबाव जो लड़के वालों द्वारा लड़की वालों पर डाला जाता है और
लड़की वाले न चाहते हुए भी इसे मानने को विवश होते हैं. यह दबाव होता है लड़की वालों
द्वारा लड़के वालों के शहर में पहुँचकर शादी का आयोजन संपन्न करना.
हो
सकता है कि शादियों के मौसम में आपको मिलने वाले निमंत्रण में ऐसे तमाम निमंत्रण
मिलते होंगे जिनमें लड़की वालों को शादी के लिए लड़के वालों के शहर में जाना पड़ता
होगा. यह एक नए तरह का बदलाव देखने को मिल रहा है जिसके मूल में किसी तरह के बदलाव
की मानसिकता नहीं वरन आर्थिक कारण प्रमुख है. किसी भी वैवाहिक आयोजन में अब लड़के
वालों द्वारा यह माना जाने लगा है कि लड़की वाले उसके अधीन हैं. लड़के वाले जैसा
चाहेंगे, जैसी माँग रखेंगे, लड़की वालों द्वारा उसे माना जायेगा. इस मानसिकता को
विकसित करने के पीछे समाज की वही मानसिकता काम करती है, जिसमें माना जाता है कि
लड़की का विवाह करना ही करना है. जिसमें माना जाता है कि लड़की पराया धन है उसे
ससुराल जाना ही है. इसी मानसिकता का फायदा लड़के वालों द्वारा उठाया जाता है. उनके
द्वारा लड़की वालों को अपने शहर बुलाकर वैवाहिक आयोजन करवाने से उनके सामने सीमित
बाराती संख्या रखने की दुविधा समाप्त हो जाती है. लड़के वालों द्वारा बारात ले जाने
की स्थिति में सीमित बाराती, कारों सहित अन्य वाहनों का खर्चा उठाने की जहमत इस एक
बदलाव से समाप्त हो जाती है. ऐसे में जहाँ लड़की के विवाह को संपन्न करवाने का एक
अनपेक्षित दबाव लड़की वालों पर रहता है वे उसी दबाव में लड़के वालों की इस माँग को भी
मान लेते हैं या कहें कि लड़के वाले लड़की वालों के इसी दबाव को अपने पक्ष में जबरन
और झुका ले जाते हैं.
इस
तरह के बदलाव को देखकर उस सोच पर अब हँसी आती है जिसमें कहा जाता था कि लड़कियों को
खूब पढ़ाओ-लिखाओ, उनको नौकरी करवाओ, रोजगार दिलवाओ, उन्हें आर्थिक रूप से सशक्त
बनाओ, आत्मनिर्भर बनाओ ऐसा करने से दहेज़ समस्या का समाधान निकल आएगा. इधर अब लग
रहा है कि दहेज़ समस्या का कोई समाधान तो निकला नहीं, किसी तरह से यह कम होते दिखा
नहीं बल्कि लड़की वालों के गले एक नई समस्या और आकर अटक गई. इस समस्या के चलते अब
वे लड़के वालों के शहर शादी करने जाने लगे हैं. पता नहीं इस समाज में लड़कियों के
विवाह से सम्बंधित समाज द्वारा उत्पन्न समस्याओं का वास्तविक निराकरण कब होगा?
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