जीवन
में समस्याएँ बचपन से ही देखी हैं, सही हैं. उनका समाधान भी किया है. आज तक
समस्यायों से, परेशानियों से, कष्टों से किसी न किसी रूप में घिरे रहते हैं. कभी
हमारे खुद के, कभी परिजनों के, कभी दूसरों के. पता नहीं किस तरह का नैसर्गिक
स्वभाव मिला हुआ है कि किसी की समस्या को नजरअंदाज नहीं किया जाता. यदि सड़क चलते
भी किसी की समस्या हमारे सामने से निकले, किसी की का कोई कष्ट भी हमारी नज़रों से निकल
जाए तो उसे सुलझाने की हद तकजुट जाते हैं. कई बार इसी कारण से घरवाले हमसे नाराज
भी हो जाते थे, आज भी हो जाते हैं. अब उनके नाराज होने की स्थिति में कुछ कमी आई
है, जबसे हम खुद समस्या से जूझ कर बाहर निकले हैं. व्यक्तिगत रूप से हम भयंकर कष्ट
वाली स्थिति से बाहर आये हैं तो समाज के लोगों की सहायता से. इसमें ऐसे लोग शामिल
रहे, जिनका हमसे कोई सम्बन्ध नहीं रहा, जिनका हमसे कभी मिलना नहीं रहा, जिनके लिए
हमने कभी कोई सहायतार्थ कार्य नहीं किया. यदि इसके बाद भी लोगों का हमारे प्रति
सद्भाव भरा रवैया रहा तो उसका अपना ही निहितार्थ होगा. संभव है कि ये प्रकृति हमें
ये सन्देश देना चाह रही हो कि कोई तुम्हारा अपना है या नहीं मगर उसकी मदद होती
रहनी चाहिए. कोई तुम्हारा अपना है या बेगाना, उसे कभी अकेले नहीं रहने देना है.
अब
ये तो नहीं पता कि प्रकृति क्या सन्देश देना चाहती थी, हमारी उस समस्या से मगर
बहुत पहले से यही बात जानी है, सीखी है कि लोगों की मदद करती रहनी चाहिए. कई बार
इसी मदद करने के चक्कर में परेशानी भी पैदा हो जाती है. ये परेशानी कई बार दूसरों
की सहायता करने में और कई बार अपने दोस्तों की मदद करने में सामने आती है. यदि हम
इसका भी आँकड़ा निकालें तो ऐसी समस्या हमें दोस्तों की समस्याओं का समाधान करने में
ज्यादा आई. हो सकता है, इस आलेख को पढ़ते समय हमारे दोस्तों को कुछ बुरा सा लगे मगर
सत्य यही है. ऐसा होने के पीछे कारण वे नहीं, हम ही हैं. हमारा बहुत छोटे से
स्वभाव रहा है कि किसी से साथ बहुत जल्द सम्बन्ध नहीं बनाये हैं, किसी के साथ बहुत
जल्द कोई रिश्ता नहीं जोड़ा है और जब भी सम्बन्ध बनाया है या रिश्ता बनाया है तो
उसे अंतिम समय तक निभाया है. ये और बात है कि अंतिम समय आने से पहले ही सामने वाला
छोड़कर चला गया. इस छोड़कर जाने वालों में कुछ अपने हैं, कुछ पराये भी, कुछ ऐसे हैं
जो न अपने बन सके और न ही पराये बन सके. बहरहाल, ऐसी स्थिति में हर बार कष्ट उसी
ने दिया जो अपना रहा. आखिर गैरों से वैसे भी क्या उम्मीद लगाई जाये, वे तो वैसे ही
गैर समझे गए.
समस्याओं
के समाधान में हर बार हमें उसी समय समस्या का सामना करना पड़ा जबकि ऐसी स्थिति
हमारे दोस्तों के कारण उत्पन्न हुई हो. सामाजिक स्तर पर अपनी सक्रियता के कारण कई
बार कॉमन मित्रों से मुलाकात हो जाया करती है. यह मुलाकात उनके स्वभाव के चलते
अंतरंगता में भी बदल जाती है. इस तरह की मुलाकातों के बाद दोस्तों का आपस में
मनमुटाव हो जाना, आपस में विभेद होना उनको कष्ट देता है या नहीं, वे जानें पर हमें
ऐसी स्थिति से बहुत कष्ट होता है. उनकी आपसी समस्या का समाधान खोजना, दोनों के बीच
की स्थिति में संतुलन बिठाना, दोनों के बीच के तारतम्य को फिर पुरानी स्थिति में
लाना अपने आपमें काफी कठिन काम होता है. कई बार लगता है कि पढ़ाई के दौरान तमाम
सारे प्रोजेक्ट्स, अनेक तरह के प्रयोगों से बिना किसी परेशानी के बाहर निकल आये
मगर जीवन की प्रयोगशाला में, संबंधों की प्रयोगशाला में ऐसे प्रयोगों ने, ऐसे प्रोजेक्ट्स
ने हमारी कठिन परीक्षा ली है. ऐसी ही कठिन परीक्षा से हाल-फ़िलहाल गुजरना हुआ.
अब
लगता है कि दोनों दोस्तों के बीच के सम्बन्ध को हमने समझा न होता. उनका सम्बन्ध
हमारी नज़रों के सामने से न गुजरा होता. यदि उनका सम्बन्ध हमारे संज्ञान में आया भी
था, उनके रिश्ते की जानकारी हमें हो भी गई थी तो उनके बीच किसी तरह का पुल बनने की
कोशिश नहीं कि जानी थी. उन दोनों के संबंधों के बीच में किसी तरह की सकारात्मकता
स्थापित करने वाला माध्यम नहीं बनना चाहिए था. ऐसा इसलिए नहीं कि बात बन न सकी या
बात बिगड़ गई क्योंकि हमारा मानना है कि दोस्तों के बीच कभी कोई बात बिगड़ती नहीं,
यदि वाकई उनके बीच दोस्ती है. यहाँ समस्या विश्वास के टूटने जैसी है. कई बार लगता
है कि व्यक्ति का सोचा हुआ सत्य नहीं होता है. वह सोचता कुछ है और हो कुछ और जाता
है. ऐसा ही कुछ हमारे साथ यहाँ हुआ. सोचा था कि हमारा कोई एक कदम दोस्तों के बीच
के रुके कदमों को शुरू करवा देगा. ऐसा हो न सका बल्कि हमारे अपने क़दमों में भी
ठहराव आ गया. किसी एक की बात न मानना और किसी एक की बात को मानना, किसी एक को समझाने
की कोशिश करना और किसी एक का बिलकुल भी न समझना, किसी एक का अपनी बात पर अड़े रहना
और किसी एक का किसी भी बात को न सुनना आदि-आदि ऐसी स्थितियाँ सामने आईं जिन्होंने
खुद हमें हिलाकर रख दिया. समझ नहीं आया कि दोस्तों के बीच लगातार पनपते अविश्वास
को कैसे दूर किया जाये? समझ नहीं आया अभी तक कि दोनों के बीच जन्मे अहं को किस तरह
समाप्त किया जाये? और भी बहुत कुछ ऐसा रहा जिसे समाप्त करना हमें नहीं लगता कि हमारे
हाथ में है मगर एक बात समझ आती है कि अनावश्यक के विवादों से सालों-साल की चली आ
रही दोस्ती, सालों-साल से चले आ रहे संबंधों में एक तरह की खटास आ जाती है.
संबंधों में एक तरह की रुकावट आ जाती है और ऐसा होता दिख भी रहा है. इसके बाद भी
प्रयास यही है कि दोस्ती चलती रहे, सम्बन्ध खुशबू बिखेरते रहें, रिश्ते मधुर बने
रहें.
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