उम्र
के चार दशक से अधिक की यात्रा के बाद भी आये दिन साथियों के, सहयोगियों के,
विद्यार्थियों के और खुद के भी एक सवाल से खुद का जूझना होता है कि प्रेम क्या
है? इस सवाल से जुड़े हुए और भी बहुत सारे सवाल हो सकते हैं. प्रेम क्यों
होता है? क्या प्रेम एक व्यक्ति से ही हो सकता है? प्रेम की सफलता-असफलता क्या है?
और भी बहुत से सवालों को इस एक सवाल कि प्रेम क्या है के आसपास घूमते देखा
जा सकता है. प्रेम की परिभाषा, प्रेम के अर्थ सभी के लिए अलग-अलग हो सकते हैं,
अपने-अपने मापदंडों पर निर्धारित हो सकते हैं. दरअसल प्रेम कोई अवधारणा नहीं है
वरन दिल की स्थिति है जो स्वतः प्रस्फुटित होती है. यहाँ दिमाग का कोई काम नहीं
होता है. जैसे ही दिल और दिमाग का आपसी तालमेल बना वहीं प्रेम की प्रकृति में
बदलाव आ जाता है. प्रेम दिल से अनुभूत की जाने वाली स्थिति है जिस पर दिमाग का कोई
प्रभाव न हो. मानवीय देह के इन दोनों तत्त्वों के अपने-अपने कार्य हैं, अपनी-अपनी
प्रकृति है और इसी के आधार पर दिल, दिमाग कार्य करते हैं. प्रेम कार्य नहीं वरन
खुद व्यक्ति का स्वभाव बन जाता है. प्रेम में सराबोर वह व्यक्ति चारों तरफ से
सिर्फ और सिर्फ आनंद की अनुभूति करता है. वह पूर्णता की प्राप्ति की तरफ अग्रसर
होता जाता है और चारों तरफ प्रेम की सुगंध बिखेरता रहता है.
असल
में प्रेमपरक स्थिति में दो दिलों के बीच, दो विचारों के बीच,
दो भावनाओं के बीच की आपसी सामंजस्य क्षमता, आपसी
समन्वय का समावेश होता है. दिल से दिल का तालमेल विशुद्ध रूप से मनोभावों की शुद्धता
का परिणाम है, दो दिलों के बीच की आपसी ईमानदारी का प्रतिफल है. इसी ईमानदारी, इसी
शुद्धता के कारण ही प्रेम दो दिलों की ताकत बनकर उभरता है. दो लोगों के बीच की आपसी
भावात्मक ईमानदारी के चलते संबंधों में, प्रेम में प्रगाड़ता बढ़ती
है. प्रेम एक तरह की आपसी बॉन्डिंग होती है जो बिना कुछ कहे, बिना कुछ करे दो लोगों में स्वतः ही एक-दूसरे के प्रति आकर्षण का भाव जगाती
है. यही भाव दो लोगों को करीब लाता है, उनमें रिश्तों की,
संबंधों की उष्णता का प्रवाह करता है. यही प्रेम है जिसके लिए यह
अधिक महत्त्वपूर्ण है कि व्यक्ति उसके दिल में है या नहीं. दिल में किसी के बसे होने
के कारण ही वर्षों बीत जाने के बाद भी उसे भुलाया नहीं जाता है. यहाँ विचार करने
की आवश्यकता है कि इन सारी स्थितियों में दिल ही सर्वोपरि रहता है. यहाँ दिमाग का
कोई हस्तक्षेप नहीं, कोई दखल नहीं.
प्रेम
कब्ज़ा करके बैठ जाने की अवस्था नहीं वरन लुटा देने की अवस्था है, जहाँ कोई सवाल नहीं होता है, कोई अभिलाषा नहीं होती है,
कोई लालसा नहीं होती है. जैसे ही प्रेम में संलिप्त दो दिलों पर अभिलाषा
का, लालसा का, पाने का, आधिपत्य करने की भावना का समावेश हुआ वैसे ही उस प्रेम में दिल की जगह दिमाग
काम करना शुरू कर देता है. कैसे उसका प्रेम बस उसका होकर रहे, इसका गणित लगना शुरू हो जाता है. कैसे उसके प्रेम में जन्मी अभिलाषा पूरी हो
इसकी तत्परता दिखाई देने लगती है. ऐसी स्थिति में दिमाग दिल को एक किनारे लगाने का
कार्य करने लगता है. यहाँ आकर प्रेम महज प्रेम न होकर भावनाओं, संबंधों का गुम्फन हो जाता है, जहाँ बहुत कुछ पास होकर
भी पास नहीं होता है. बहुत कुछ प्रेमपरक होने के बाद भी प्रेममय नहीं होता है.
प्रेम
की स्थिति न केवल दो दिलों को जोड़ती है बल्कि उनके बीच संबंधों, रिश्तों की प्रगाड़ता को भी जोड़ती है. दो लोगों के बीच कहे-अनकहे संसार का विस्तार
करती है. यही प्रगाड़ता यदि संबंधों का, प्रेम का विस्तार करती
है, चेहरे पर हँसी का प्रादुर्भाव करती है तो यही प्रगाड़ता आँखों
में नीर भी भरती है. न जाने किस तरह की भावनात्मकता का संसार चारों तरफ रचा-बसा होता
है जहाँ हँसी-ख़ुशी के साथ आँसुओं का प्रवाह होता है, अपनों के
खोने का भय होता है, सबकुछ उजड़ जाने का डर होता है. किसी का एक
पल में मिलकर जीवन भर के लिए जुड़ जाना और किसी का जीवन भर साथ रहकर भी एक पल में जुदा
हो जाना, आश्चर्यबोध जैसा कुछ प्रतीत करवाता है. न कहने के बाद
भी सबकुछ समझने का भाव, सबकुछ समझते हुए भी कुछ न कहने का बोध,
जैसे अलौकिक दुनिया का निर्माण करता है. काश! संबंधों, भावनाओं, रिश्तों, संवेदना की मासूम
सी आधारभूमि पर आँसुओं की, जुदा होने की, सबकुछ छूट जाने की कष्टप्रद खरोंच न बनने पाती. काश! प्रेमपरक संसार
प्रेममय ही बना रहता. काश! प्रेम के संसार का निर्माण करते समय दिल ही सर्वोपरि
बना रहता और दिमाग उसके बीच किसी भी रूप में समाविष्ट न हो पाता. काश! प्रेम के न
पाने की ख़ुशी होती, न खोने की चिंता होती, न उस पर कब्जे की
भावना जन्मती. काश! प्रेम बस प्रेम ही रहता.
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