07 अप्रैल 2019

सवालिया निशान हम सबके ऊपर भी हैं


किस हद तक असंवेदनशील होते जा रहे हैं हम इसका अंदाजा लगातार किसी न किसी घटना से लगता ही रहता है. कभी पढ़ने को मिलता कि खाद्य-सामग्री में मिलावट की जा रही है. दूध में यूरिया मिलाया जा रहा. दवाइयों में मिलावट की जा रही है. कुछ सालों पहले खून में भी मिलावट करके बेचने वाला गिरोह पकड़ा गया था. मानव-अंगों की तस्करी की खबरें भी सामने आती रहती हैं. किसी लालच के चलते बच्चों की बलि दिए जाने की खबरें इक्कीसवीं सदी में पढ़ने को मिलती रहती हैं. मासूम बच्चियों का शारीरिक शोषण करके उनकी बर्बर हत्या कर देने की खबरें भी इधर आम हो चली हैं. इन खबरों को पढ़ने के बाद मन खिन्न हो उठता है कि आखिर किस दिशा में समाज जा रहा है? पढ़े-लिखे होने का दंभ करने के बाद भी कैसा समाज बनाने में लगे हैं हम सभी. आज एक खबर पढ़ने को मिली तो मनोदशा अजब सी हो गई. एक बच्ची के बोर-वेल में गिरने के बाद शुरू हुआ बचाव कार्य उसे निकाले बिना ही रोक दिया गया. 


बचाव कार्य के दौरान वह बच्ची सीमा, पच्चीस फीट से सरकते हुए साठ फीट तक पहुँच गई. गड्ढे में भेजी जा रही ऑक्सीजन की पाइप भी इस दौरान टूट गई, जिससे गड्ढे में ऑक्सीजन पहुँचना भी बंद हो गया. साठ फीट पर बच्ची के पहुँच जाने के बाद और मिट्टी के रेतीली होने के कारण लगातार वह धसक रही थी. आसपास के मकानों के गिरने का भी संकट उत्पन्न हो गया था. ऐसे में बचाव कार्य में लगे लोगों द्वारा यह मानते हुए कि साठ फीट गहराई तक जा चुकी बच्ची जीवित न रही होगी, बचाव कार्य रोक दिया गया. यह अपने आपमें कितना संवेदनहीन मामला है कि एक बच्ची को बिना निकाले, बिना स्पष्ट पुष्टि हुए कि वह जीवित भी है या नहीं बचाव कार्य रोक दिया गया. मन सोच-सोच कर ही व्यथित हो उठता है कि सिर्फ बचाव कार्य ही नहीं रोका गया वरन वहाँ के सभी गड्ढों को मिट्टी डालकर बंद कर दिया गया.


एक बार को उस स्थिति की कल्पना कीजिये कि कैसे उस बच्ची के घरवालों ने बचाव कार्य बंद करने सम्बन्धी सहमति दी होगी? किस मनोदशा में बचाव कार्य को बंद किया गया होगा? कैसे बचाव कार्य में लगे अधिकारियों ने उन गड्ढों को मिट्टी से भरने का आदेश दिया होगा? कैसे दस-बारह मकानों का बचाया जाना एक बच्ची के बचाने से ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो गया? फ़िलहाल तो वह बच्ची जिंदा ही दफ़न कर दी गई उस बोर-वेल में, यह मानते हुए कि वह जीवित न बची होगी. क्या अब भी इस तरह की घटनाओं से सबक नहीं लिया जायेगा? क्या ऐसे मामलों में बोर-वेल खुदवाने वालों को अपराधी घोषित करते हुए उनको कानूनन सजा नहीं दी मिलनी चाहिए? क्या ऐसी घटनाएँ बस दो-चार दिन चर्चा में रहने के बाद फिर किसी बच्चे की मौत का इंतजार करने लगेंगी? क्या सिर्फ प्रशासन को ही दोष देते हुए हम नागरिक अपनी जिम्मेवारियों से बचते रहेंगे? क्या हमारा कोई दायित्व नहीं है? बहुत से बिन्दु हैं जो हमारे बुद्धिजीवी होने पर, हम सभी के इक्कीसवीं सदी के नागरिक होने पर, हम सभी के संवेदनशील होने पर सवालिया निशान लगाते हैं.

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