05 अप्रैल 2019

पत्रों की खुमारी में डूब कर


कई बार ऐसा होता है जबकि सब कुछ सही होने के बाद भी कुछ सही होता सा नहीं दिखता है. सब कुछ ठीक होने के बाद भी कुछ ठीक सा नहीं लग रहा होता है. मन में किसी तरह की उथल-पुथल न होने के बाद भी अशांति सी मची रहती है. दिल में किसी के प्रति बेचैनी न होने के बाद भी एक टीस सी उठती रहती है. ऐसा नियमित रूप से भले न होता हो मगर अक्सर होता है. क्यों होता है, यह कभी समझ नहीं आया. कभी समझ न आया इसलिए क्योंकि ऐसा अभी से नहीं वरन दशकों से होता आ रहा है. ऐसी स्थिति में खुद को किसी अनजानी सी निराशा में जाने से बचाते हुए, किसी अनचाहे से अवसाद की चपेट में आने से रोकते हुए किसी न किसी काम में उलझा लेते हैं. यह जानते-समझते हुए कि ऐसी स्थिति में किसी काम में मन नहीं लगता है, काम के नए-नए रंग खोजने की कोशिश की जाने लगती है. वैसे ऐसी स्थिति में दो-तीन काम बहुत सहजता से करके समय को गुजारने की कोशिश होती है.

इसमें पेन-पेन्सिल की सहायता से आड़ी-तिरछी रेखाएं खींचते हुए कुछ न कुछ बनाने का प्रयास किया जाता है. यद्यपि इसे न तो आर्ट कह सकते हैं और न ही रेखाचित्र क्योंकि बेमकसद से बस पेन-पेन्सिल (जो भी हाथ लग जाये) कागज पर इधर से उधर दौड़ते रहते हैं. दिमाग बिना किसी कल्पना के कागज पर बस कुछ न कुछ बनाने के लिए हाथ को निर्देश देता रहता है. इसके अलावा लिखने का काम भी किया जाने लगता है. इस लिखने में कभी भी गद्य की तरफ नहीं जाना होता है. ऐसा इसलिए क्योंकि गद्य की विशालता के लिए सोचने की तारतम्यता चाहिए होती है और यदि विचारों में साम्यता, तारतम्यता बन ही रही होती तो फिर अनबूझ सी उलझन बनी ही क्यों होती. इस समय में लेखन के नाम पर छोटी-छोटी काव्य-रचनाओं की तरफ कलम चलने लगती है. मुक्तक, शेर, हाइकु आदि के सहारे अनजानी सी उलझन को दूर करने का प्रयास रहता है. फोटोग्राफी भी ऐसे समय में हमारा बड़ा साथ देती है. वैसे तो मूड कैसा भी हो फोटोग्राफी के लिए चौबीस घंटे दिमाग चैतन्य रहता है और कैमरा लेकर बाहर भाग जाने को उकसाता रहता है. इसके उलट जब मन में बिना बात अशांति सी हो और बाहर निकलने का मन न हो रहा हो तब कमरे के अन्दर का सामान ही हमारे कैमरे के निशाने में आता है. अकारण ही किसी न किसी सामान को निशाना बनाते हुए उसके अलग-अलग अंदाज में फोटो निकालना होता रहता है. ये और बात है कि ऐसी स्थिति में दो-चार फोटो के अलावा सारी फोटो समाप्त ही करनी पड़ती हैं. 

इनके अलावा पुराने पत्रों को पढ़ना बहुत सुकून देता है. पता नहीं कौन सी आदत के चलते दशकों पुराने पत्र हमारे खजाने में आज भी सुरक्षित हैं. दोस्तों के पत्र, रिश्तेदारों के पत्र, भाईयों-बहिनों के पत्र, शुभचिंतकों के पत्र समय-समय पर हमारे आसपास खुशबू बिखेरते रहते हैं. कुछ सामान्य से पत्र हैं जो किसी न किसी विशेष वजह से सुरक्षित हैं, कुछ पत्र व्यक्ति-विशेष के कारण सुरक्षित हैं तो कुछ पत्र असामान्य होने के कारण, विशेष होने के कारण भी सुरक्षित रखे हुए हैं. विगत दो-तीन दिनों से इन्हीं पत्रों के द्वारा अतीत की सैर की जा रही है. ऐसे लोगों से मिला जा रहा है जिनसे मिलना अब संभव भी नहीं. ऐसे लोगों से भी मुलाकात की जा रही है जिनसे मुलाकात ‘शायद’ वाली स्थिति में है. पत्रों की इस दुनिया में कई बार सुखद स्थिति सामने आती है तो कई बार विषम स्थिति भी सामने आ जाती है. कई बार खिलखिलाने का मन करता है तो कई बार अपने आप ही आँसू बहने लगते हैं. संबंधों का, रिश्तों का निर्वहन देखने को मिलता है, अपनेपन का एहसास दिखाई देता है. किसी के साथ का झगड़ा याद आया, किसी के साथ की अनौपचारिकता सामने आई, किसी के साथ आप से तुम तक आ जाने अधिकार दिखाई दिया, किसी के साथ बड़प्पन का भाव मुस्कुराया.

अभी तो उन्हीं पत्रों की दुनिया की खुमारी में डूब कर वर्तमान को अतीत में ही खड़ा कर रखा है. उस खुमारी से निकलने के बाद देखा जायेगा कि दिमाग की, दिल की, मन की अबूझ सी अनमनी सी स्थिति में क्या सुधार हुआ है.

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