‘फिर
किसी रहगुज़र पर शायद, हम कभी मिल सकें मगर शायद’ अहमद फ़राज़ की कलम और गुलाम अली के
स्वर में ढली ग़ज़ल अपने आपमें बहुत से सन्दर्भों को संजोती हुई दिल में उतर जाती
है. कहीं इंतजार तो कहीं शायद के रूप में अनिश्चितता से परिचय कराती है. वर्तमान
में होने के बाद भी अतीत में टहल आने की दिल-दिमाग की गैर-इरादतन साजिश बहुत कुछ
भूलने-भुलाने के बाद भी याद कराती है. ये मानवीय स्वभाव ही है कि अतीत को कहीं
पीछे छोड़कर व्यक्ति वर्तमान में जीने की कोशिश करता है किन्तु अतीत उसके साथ किसी
न किसी रूप में चलता रहता है. अचेतन मन में यही अतीत बड़े आराम से कुंडली मारे बैठा
होता है जो गाहे-बगाहे सिर उठाकर खड़ा हो जाता है. गुजरे समय में पहुँच कर व्यक्ति
को खुशियों से तो कभी आँसुओं से सराबोर वर्तमान मिलता है. कितनी-कितनी बातें होती
हैं जो उस समय में निरर्थक सी महसूस होती थीं, बहुत सी घटनाएँ होती थीं जिनका उस
समय कोई मोल नहीं समझा जाता था मगर समय के साथ वही घटनाएँ, वाली बातें अनमोल समझ
में आती हैं. अतीत में घटित वे स्थितियाँ व्यक्ति को भीड़ में अकेला करती हैं तो
अकेलेपन में किसी के साथ का एहसास कराती हैं.
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