ज़िन्दगी
का अर्थ क्या है, अक्सर ये विचार मन में कौंधता है पर इसका कोई समाधान नहीं निकल
पाता है. न समाधान निकल पाता है और न ही मिलता है. हर बार की तरह, हर बार ये सवाल
बिना जवाब पाए पहलू में सिमट जाता है. पहलू में सिमटने के बाद भी आये दिन ये सवाल
सिर उठा कर सामने खड़ा हो जाता है कि ज़िदगी का अर्थ क्या है? क्या नौकरी करना भर
ज़िन्दगी है? क्या शादी करके परिवार की संकल्पना पूरी कर देना ही ज़िन्दगी है? क्या
परिवार के सदस्यों का भरण-पोषण करते रहना ही ज़िन्दगी है? क्या परिवार की सभी तरह
की आवश्यकताओं को पूरा करते रहना ही ज़िन्दगी है? इन सबको भी यदि हाँ में मान लिया
जाये, स्वीकार कर लिया जाये तो भी सवाल जहाँ का तहाँ रहता है कि आखिर ज़िन्दगी का
अर्थ क्या है? ऐसा इसलिए क्योंकि समाज में बहुत से परिवार ऐसे हैं जो ऐसा नहीं कर
रहे हैं मगर ज़िन्दगी जी रहे हैं. बहुत से ऐसे हैं जिनके ज़िन्दगी का अर्थ महज इतना
नहीं है. ऐसे में यह तो साफ़ है कि ज़िदगी महज खाने-कमाने-पारिवारिक भरण-पोषण आदि से
ही संदर्भित नहीं है. ज़िन्दगी इससे कहीं अधिक आगे है. इससे कहीं अलग है. फिर वही
सवाल कि आखिर ज़िन्दगी है क्या? ज़िन्दगी का अर्थ क्या है?
इसी
सवाल के आईने में उन लोगों को भी देखा है जिनके सामने परिवार का कोई मतलब नहीं,
जिनके सामने पारिवारिक जिम्मेवारी जैसी कोई स्थिति नहीं इसके बाद भी उनको ज़िन्दगी
बिताते नहीं देखा गया. नितांत अकेले में सिर्फ और सिर्फ अपनी जिम्मेवारी का
निर्वहन करते लोगों के सामने भी ज़िन्दगी एक सवाल बनकर खड़ी होती है. ऐसे लोगों के
सामने भी सवाल होता है कि आखिर ज़िन्दगी है क्या? वे अपने समय को, अपने कार्यों को
जीवन से, ज़िन्दगी से सम्बद्ध कर ही नहीं पाते हैं. इसी के सापेक्ष उन लोगों को, जो
ज़िन्दगी को विशुद्ध बेबाकी से बिताना चाहते हैं वे भी ज़िन्दगी को लेकर एकदम
निश्चिन्त नहीं होते हैं. उनके लिए भी ज़िन्दगी का अर्थ खोजना मुश्किल काम होता है.
ऐसा इसलिए क्योंकि समाज में ज़िन्दगी के सन्दर्भ, उसके भावार्थ किसी दूसरे अर्थों
में प्रयुक्त किये जाते हैं. समाज में आम चलन में ज़िन्दगी का सीधा सा अर्थ आजीविका
के साथ पारिवारिक भरण-पोषण करना भर है. इसके अलावा ज़िन्दगी का मतलब कुछ नहीं. इसके
इतर जो भी कुछ है वो ज़िन्दगी नहीं वरन जीवन निर्वहन का एक तरीका मात्र है.
कुछ
इसी तरह की सोच के चलते भारतीय समाज में ज़िन्दगी अपने मूल रूप में आने के पहले ही
समाप्त हो जाती है. यहाँ ज़िन्दगी का अर्थ बोझा ढोने से लगाया जाने लगता है. यहाँ
ज़िन्दगी का अर्थ परिवार के लोगों के भरण-पोषण से माना जाता है. यहाँ ज़िन्दगी का
अर्थ नितांत गंभीरता की स्थिति में सुबह से लेकर शाम तक गधे की तरह काम में लगे
रहना समझा जाता है. यहाँ ज़िन्दगी का सम्बन्ध व्यक्ति की उम्र से जोड़ते हुए उसे
वृद्ध बनाने से होता है. यहाँ ज़िन्दगी का अर्थ मजाक करना नहीं. यहाँ ज़िन्दगी का
अर्थ मौज-मस्ती करना नहीं. यहाँ ज़िन्दगी का सम्बन्ध युवा होने से नहीं है. यहाँ
ज़िन्दगी का मतलब व्यक्ति के खुल कर आनंद उठाने से नहीं है. ऐसे में जबकि ज़िन्दगी
का अर्थ बोझ बना दिया गया ही वहाँ किसी व्यक्ति का असमय वृद्ध हो जाना कहाँ से
असंगत महसूस होता है. यही कारण है कि भारतीय समाज में समय से पहले वृद्ध लोग सड़क
किनारे टहलते दिखाई देने लगते हैं. यही कारण है कि बीमा कम्पनियाँ युवाओं को पेंशन
प्लान समझाने लगती हैं. यही कारण है कि आज का युवा अपनी नौकरी में समय देने से
ज्यादा समय पेंशन निर्धारण के धरनों-आन्दोलनों में देने लगा है. ध्यान रखना चाहिए,
ज़िन्दगी महज उतनी है जो सुबह आँख खुलने से लेकर रात आँख बंद होने तक है. इतने पलों
को सुखद रूप में, पूरी तन्मयता से, बिना किसी समस्या के बिता देना ही ज़िन्दगी है.
बाकी जो भी हैं वे अपने हिस्से कि इतनी सी ही ज़िन्दगी लेकर आये हैं. ये और बात है
कि कोई इसी हिस्से को हँस कर बिता रहा है, कोई इसी हिस्से को रोकर गुजार रहा है. आप
विचार करिए कि आप क्या कर रहे हैं इस हिस्से का?
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