02 अप्रैल 2019

भाजपा की लड़ाई खुद से है


चुनावी चर्चाएँ अब अपने चरम पर हैं. घोषणा-पत्र से लेकर आम आदमी तक के विचार अब सड़क पर टहलते दिखाई दे रहे हैं. राजनैतिक मंच हो या फिर चाय की दुकान, सभी जगह राजनीति की चर्चा ही दिख रही है. आश्वस्त होने के बाद भी आश्वस्त न समझ आना भी बहुत बड़ी स्थिति है इस समय. ऐसा लगभग सभी दलों में दिख रहा है. सत्तासीन भाजपा सहित अन्य सभी दलों में विभ्रम की स्थिति दिखाई दे रही है. भाजपा जहाँ अपने विकास के नारे के साथ मोदी के नाम पर स्वयं को निर्भर मान बैठी है वहीं कांग्रेस सहित अन्य दल अपने-अपने क्षेत्रों पर अपनी निर्भरता बनाये हुए हैं. राष्ट्रीय स्तर के दल कांग्रेस की स्थिति भी वर्तमान में किसी क्षेत्रीय दल की तरह रह गई है या कहें कि वह उसी तरह का व्यवहार करने में लगी है. यदि ऐसा न होता तो वह उत्तर प्रदेश में अपने से कमतर दलों के सामने गठबंधन जैसी स्थिति को दोहराने में न लगी होती. इससे पहले उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में दो युवाओं का साथ पसंद आने के नारे लगाये जा रहे थे मगर लोकसभा तक आते-आते ये पसंद बदल गई.


जैसे कि हालात दिखाई दे रहे हैं, उसमें लगभग सभी जगह भाजपा के साथ ही बाकी दलों का संघर्ष है. इसके उलट देखा जाये तो भाजपा का संघर्ष अपने आपसे ही है. किसी भी प्रदेश में नजर घुमाई जाए तो वहां भाजपा की लड़ाई किसी दूसरे राजनैतिक दल से नहीं है, वह किसी न किसी रूप में अपने आपसे ही लड़ रही है. भाजपा के कार्यकर्ताओं में मोदी जी के नाम पर उत्साह है मगर स्थानीय प्रतिनिधित्व के नाम पर जबरदस्त गुस्सा है, जबरदस्त नाराजगी है. ऐसा किसी एक-दो जगहों में नहीं, किसी एक-दो राज्यों में नहीं वरन बहुसंख्यक जगहों पर है. ऐसे में भाजपा के लिए सहजता से वर्तमान लोकसभा चुनाव जीतना भले ही असंभव न हो पर कठिन अवश्य है. इस कठिनता को दूर करना भाजपा नेतृत्व का कार्य होना चाहिए मगर इस काम को विपक्षी करते नजर आते हैं, गैर-भाजपाई करते नजर आते हैं. ये सिर्फ इस चुनाव की बात नहीं है विगत कई चुनावों के समय की स्थितियों का आकलन किया जाये तो आसानी से समझ आता है कि बहुत से चुनाव भाजपा ने अपनी सशक्तता के कारण नहीं जीते हैं वरन विपक्ष की, विरोधियों की गलतियों के कारण जीते हैं. कुछ इसी तरह का काम भाजपा-विरोधी इस चुनाव में भी कर रहे हैं. आये दिन की उलटी-सीधी बयानबाजी, आये दिन किसी न किसी तरह की नौटंकीयुक्त हरकतें, आये दिन की कोई न कोई देश-विरोधी गतिविधि. ऐसे में मतदान के प्रति स्पष्ट राय न बना सके मतदाता स्वतः ही भाजपा के राष्ट्रवाद की तरफ मुड़ जाते हैं. ऐसे मतदाताओं को विगत वर्षों के कार्यों के सापेक्ष पिछली सरकारों के कारनामों का तुलनात्मक अध्ययन करने का मौका मिल जाता है. 

भले ही विपक्षियों द्वारा, विरोधियों द्वारा भाजपा को मौका दे दिया जाता हो मगर इस चुनाव में भाजपा नेतृत्व को पहले की अपेक्षा ज्यादा मेहनत करने की आवश्यकता है. इसके पीछे जमीनी कार्यकर्ताओं की उपेक्षा, दूसरे दलों के आये हुए नए-नए लोगों को टिकट दे देना, बहुसंख्यक भाजपा जनप्रतिनिधियों का जनता से जुड़ाव न बनाये रखना, मीडिया द्वारा केन्द्रीय नेतृत्व के प्रति नकारात्मक खबरों का प्रसारण करना आदि भी है. ऐसे में भले ही वर्तमान में देश के मतदाताओं के सामने केन्द्रीय स्तर पर अभी मोदी के अलावा कोई और विकल्प नहीं दिखाई दे रहा हो मगर ऐसी सोच में कार्यकर्ताओं की नाराजगी नकारात्मक स्थिति ला सकती है. चूँकि अभी मतदान का आरम्भ नहीं हुआ है, ऐसे में भाजपा नेतृत्व को ज्यादा सक्रियता से, ज्यादा गंभीरता से विचार करने की, कार्य करने की आवश्यकता है.

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