‘कतरा-कतरा
मिलती है, कतरा-कतरा जीने दो, ज़िन्दगी है...’ ये एक गाने की पंक्तियाँ हैं मगर
जीवन के एकदम निकट हैं. सभी की ज़िन्दगी किस कदर बस कतरा-कतरा करके निकली जा रही
है. ये और बात है कि आर्थिक स्थिति के चलते किसी को अपना कतरा मालूम चलता है, किसी
को मालूम नहीं चल पाता है. क्या कभी इस पर विचार किया गया है कि ज़िन्दगी है कितनी?
यहाँ सबसे पहले ज़िन्दगी का होना उम्र से जोड़ना किसी भी व्यक्ति की बेवकूफी होती
है. ज़िन्दगी उम्र नहीं बल्कि वह है जो आप गुजार रहे हैं, व्यतीत कर रहे हैं. उम्र
तो असल में एक तरह का नंबर सिस्टम है, जो किसी न किसी रूप में कैलेण्डर से जुड़ा
हुआ है. कैलेण्डर का बदलना ही उम्र का पर्याय बनता है. इससे कहीं अलग, बहुत अलग है
ज़िन्दगी. ये और बात है कि बहुसंख्यक लोग ज़िन्दगी का अर्थ समझे बिना उसे जिए चले जा
रहे होते हैं. ऐसे लोगों के लिए ज़िन्दगी का अर्थ खुद का पैदा होना, शादी कर लेना,
दो-चार बच्चे पैदा कर लेना और फिर उनकी शादी-उनके बच्चों की आस लगाये मर जाना होता
है. इसी पैदा होने और जन्म लेने के बीच उनके द्वारा कुछ काम-धाम कर लिया जाता है
जो उनके परिवार के भरण-पोषण के लिए आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य होता है.
ज़िन्दगी
इस जन्म-मृत्यु से, शादी-बच्चे पैदा करने, कमाने-खाने से बहुत अलग है. ज़िन्दगी का
असल मतलब जो हमें समझ आया वो ये कि एक दिन में जितना समय एक व्यक्ति को मिला है,
उसका सदुपयोग करना है. असल में किसी भी व्यक्ति की जिन्दगी आँख खुलने से आँख बंद
होने तक अर्थात सुबह जागने से लेकर रात सोने तक ही है. इसमें भी हर एक पल में
ज़िन्दगी है क्योंकि उसे नहीं मालूम कि अगले पल क्या होने वाला है. ऐसी स्थिति में
जबकि किसी भी व्यक्ति को अपने अगले पल का भरोसा न हो, उसे नहीं जानकारी हो कि उसका
अगला पल क्या, कैसा होने वाला है तब भी वह अपने जीवन को लेकर एकदम निश्चिन्त सा
दिखाई देता है. किसी भी व्यक्ति की अपने जीवन के प्रति यही सबसे बड़ी भूल होती है.
इसी के कारण वह अपने जीवन का सदुपयोग नहीं कर पाता है और न ही उसका आनंद ले पाता
है. यदि वाकई ज़िन्दगी का, अपने जीवन का आनंद लेना है तो प्रत्येक पल को अंतिम पल
मानते हुए उसका सर्वोत्तम और सार्थक उपयोग करना चाहिए. यदि कोई व्यक्ति ऐसा कर
पाता है तो वह वास्तविक रूप में ज़िन्दगी का अर्थ समझ लेता है, ज़िन्दगी जीने के
आयाम समझ लेता है.
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