17 अप्रैल 2019

बर्फ सा न पिघलने दें बचपन को


बच्चों को सुबह जगाने, स्कूल के लिए तैयार करने के नाम पर चीखना-चिल्लाना; उनको नाश्ता कराने-भोजन करवाने के नाम पर क्रोधित होना; उनको पढ़ाने के नाम पर, होमवर्क करवाने के नाम पर खीझना जैसे अभिभावकों के बीच सामान्य गतिविधि होती जा रही है. संभव है कि ऐसा सभी घरों में न होता हो मगर जिस तरह से अभिभावक अपनी मनोच्छाओं को अपने बच्चों पर लाद रहे हैं, उसे देखते हुए ये बातें लगभग सभी घरों में नित्य ही देखने को मिलती हैं. असल में अभिभावकों ने ज़िन्दगी की आपाधापी में चल रही अंधी दौड़ में अपने बच्चों को भी शामिल कर लिया है. उनके लिए उनके बच्चे भले ही उनकी संतान हों, वे अवश्य ही उससे प्यार-दुलार करते हों मगर इन सबके ऊपर अपने बच्चों को सर्वोत्कृष्ट देखने का भाव उनके प्रति तीखी प्रतिक्रिया करने को प्रेरित करता है. वर्तमान औद्योगीकरण, वैश्वीकरण के दौर में जिस तरह से धन को किसी भी रिश्ते, किसी भी सम्बन्ध पर वरीयता दी जाने लगी है, उसने संबंधों-रिश्तों में एक तरह का खोखलापन तो भरा ही है, बचपन को भी शुष्क कर दिया है. अभिभावकों में अपने बच्चों पर अधिक से अधिक अंक लाने की, किसी न किसी खेल में, गीत-संगीत में, कला में भी अपना सर्वोच्च देने का दवाब बनाया जाने लगा है. खेलना-कूदना, शरारत करना जैसे फूहड़पन की बातें हो गई हैं.


किसी अभिभावक द्वारा अपने बच्चों के साथ इस तरह की कठोरता दिखाना, तेज आवाज़ में चिल्लाना, बात-बात पर टोकना आदि का उद्देश्य उनकी बेइज्जती करना नहीं होता है. असल में आज भी बहुसंख्यक अभिभावकों में आम धारणा बनी हुई है कि उनका अपने बच्चों के साथ इस तरह की गतिविधियों को अंजाम देना एक तरह का अनुशासन बनाना है. वे समझते हैं कि इस तरह से बच्चों की सुबह जागने से लेकर रात सोने तक की सभी गतिविधियों पर टोका-टाकी करके, उसमें कठोरता दिखाकर वे बच्चों को अनुशासित बना रहे हैं. यदि देखा जाये तो उनकी ऐसी सोच बहुत हद तक गलत है. संभव है अपने माता-पिता की टोका-टाकी करने से, उनके डांटने से, उनके तेज चिल्लाने से बच्चा कुछ हद तक शांत रह जाए मगर इससे वह अनुशासित नहीं हो सकता है. कई बार ऐसे मामलों में अभिभावक अपना, अपने समय का उदाहरण दिया करते हैं. इस तरह के उदाहरण देते समय वे भूल जाते हैं कि तब न वे अकेले हुआ करते थे और न ही परिवार अकेले हुआ करते थे. संयुक्त परिवार की अवधारणा के चलते कई पारिवारिक सदस्य एकसाथ रहा करते थे. ऐसे में किसी बच्चे की डांट पड़ने पर, उसके साथ सख्ती दिखाने पर उसे अकेलापन महसूस नहीं हुआ करता था. ऐसे में पारिवारिक सदस्य ही उसकी गलती बताते हुए उसे सुधारने की कोशिश कर लिया करते थे. अब जबकि परिवार एकल हो गए हैं, बच्चे भी बहुतायत परिवारों में एक ही हैं तब उनके साथ सख्ती बरतना उनको अनुशासित करना नहीं वरन उनको चिड़चिड़ा बनाना है. 

आज बच्चों को बाहर खुले में खेलने की न तो जगह दिखती है और न ही उनको बाहर खेलने की अनुमति मिलती है. स्कूल के काम, पढ़ाई के बोझ में वे खुद को दबा हुआ पाते हैं, अभिभावकों द्वारा अधिक से अधिक अंक लाने का दवाब भी उनके ऊपर होता है, खेलने के लिए भी कंप्यूटर या मोबाइल गेम उनके सामने होते हैं ऐसे में स्वाभाविक है कि उनका नैसर्गिक विकास नहीं हो पाता है. ऐसे में प्रतिदिन की सुबह से शाम तक की टोका-टाकी में बच्चे अपने आपको कमतर समझने लगते हैं. किसी एक ही काम के लिए भी बार-बार टोकने से उनको उस काम के प्रति वितृष्णा सी होने लगती है. इससे न केवल बच्चे काम करने से दूर भागने लगते हैं बल्कि अपने ही अभिभावकों के प्रति नकारात्मकता का एहसास पालने लगते हैं. यह स्थिति बच्चों के विकास को अवरुद्ध करती है. आज की स्थितियों में माता-पिता को बच्चों के साथ न सही एक दोस्त की तरह पर दोस्ताना माहौल में काम करने की आवश्यकता है. यदि माता-पिता इस तरह का वातावरण अपने परिवार में, घर में बना पाते हैं तो बच्चों का स्वाभाविक विकास करने के प्रति एक कदम बढ़ा सकते हैं. ऐसा न हो पाने की दशा में बच्चों में चिड़चिड़ापन आना, गुस्सा आना, नकारात्मक भावना का विकसित होना शुरू हो जाता है.

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