ज़िन्दगी
को जितनी सहजता से जिया जाए उतना आनंद देती है. अक्सर लोग अपनी ज़िन्दगी को एक
दार्शनिक अंदाज़ में जीने की कोशिश करने लगते हैं. ऐसा हो पाए या नहीं, ये अलग बात
है मगर उनकी बातों में, विचारों में, सार्वजनिक प्रदर्शन में एक तरह की
दार्शनिकता, आदर्शवाद दिखाई देने लगता है. जीवन में दार्शनिक भाव का अथवा आदर्श का
प्रकटीकरण वैचारिकता के स्तर पर तो बड़ा ही सुखद और उच्च मानकों पर स्थापित होता
दिखाई देता है किन्तु वास्तविकता से इसका लेना-देना बहुत दूर-दूर तक नहीं होता है.
असल में जीवन विशुद्ध दार्शनिक अंदाज में अथवा आदर्शात्मक स्थिति में नहीं चलता
है. इसके लिए व्यक्ति को बहुत व्यावहारिक रूप से कार्य करने की, अपनी सोच विकसित
करने की आवश्यकता होती है. बस, जीवन निर्वहन के स्तर पर, जीवन का आनंद लेने के
स्तर पर बहुसंख्यक लोग इसी का पालन नहीं कर पाते हैं. जीवन निर्वहन की व्यवहारिक
सोच उसी समय कुंद पड़ जाती है जैसे ही हमें लगता है कि हमारा किसी के द्वारा उपयोग
किया जा रहा है,
जैसे ही हमें आभास होता है हम सबके दिल-दिमाग का हिस्सा नहीं हैं.
क्या वाकई समाज का कोई भी व्यक्ति, किसी भी पद पर बैठा व्यक्ति, कोई भी संस्था
बिना सम्बंधित व्यक्ति की मंशा के उसका दोहन कर सकती है? उसका उपयोग कर सकती है?
क्या कोई एक व्यक्ति सभी के लिए पसंदीदा हो सकता है? क्या कोई एक व्यक्ति समाज के
सभी अंगों के लिए एकसमान रूप से स्वीकार्य हो सकता है? फिर विचार करिए इस पर, क्या
वाकई आपका व्यक्तित्व इतना कमजोर अथवा हल्का है कि समाज का कोई भी अंग चाहे तो
आपका उपयोग कर जाए वो भी बिना आपकी मर्जी के? यही मर्जी, आपकी यही इच्छा ही समाज
में लोगों को एक-दूसरे से जोड़ने का काम करती है.
समाज में
आज से नहीं वरन अनादिकाल से ही मुख्य रूप से दो तरह के लोग दिखाई देते रहे हैं. एक
वे जो विशुद्ध रूप से आपके अपने हैं, आपकी संवेदनाओं-भावनाओं के स्तर से आपके अपने
हैं. दूसरे वे जो आपके होने का नाटक करते हैं, आपको आपके होने का आभास करवाते हैं
मगर वे आपके होते नहीं हैं. ऐसे लोगों के लिए आप प्रिय नहीं वरन उपयोगी वस्तु की
तरह से होते हैं. इन दो के अलावा भी समाज में व्यक्तियों की चारित्रिक रूप से अनेक
संरचनाएं पायी जाती हैं, जिन पर चर्चा कभी बाद में. अभी जिन दो तरह के लोगों पर
बिंदु केन्द्रित है उसमें एक तो वे हैं जो विशुद्ध रूप से आपके हैं. यहाँ विशुद्ध
का सन्दर्भ समझने की आवश्यकता है. ऐसे लोग बिना किसी लालच के, निस्वार्थ भाव से
आपके साथ होते हैं. उनके लिए आपके पद, आपकी प्रस्थिति, आपकी आर्थिक संरचना आदि का
कोई मतलब नहीं होता है. वे बस आपके ही होते हैं, आपके लिए ही होते हैं,
समय-परिस्थिति कुछ भी बनी रहे. इसके अलावा दूसरे तरह के वे लोग जो आपके साथ होकर
भी आपके नहीं होते. जो आपके साथ होने का आभास करवाते हैं मगर वे आपका उपयोग कर रहे
होते हैं. यहीं आकर ज़िन्दगी का दर्शन, ज़िन्दगी का आदर्श समझने की आवश्यकता है.
आप दूसरे
किसी भी व्यक्ति के लिए किस तरह से उपयोग किये जा रहे हैं, यह आपको समझना पड़ेगा.
ऐसा इसलिए होता है क्योंकि आपने खुद उन लोगों में अंतर करने का विचार कभी किया ही
नहीं कि कौन विशुद्ध रूप से आपका है और कौन आपके होने का आभास करवा रहा है. यह
चारित्रिक त्रुटि खुद आपकी ही होती है जबकि आप समाज के सभी तरह के लोगों को एक
तराजू में तौलने का काम करने लगते हैं. ऐसे में विशुद्ध रूप से आपके लोग आपको
नुकसान नहीं पहुँचायेंगे, आपका उपयोग नहीं करेंगे जबकि दूसरी तरह के लोग आपका
उपयोग कर जायेंगे. ये भी संभव है कि विशुद्ध आपका साथ देने वाला, आपका हित चाहने
वाला कभी-कभी कठोर शब्दों में आपको समाज की वास्तविकता से अवगत कराने का कार्य
करे. ऐसा निश्चित ही आपको ख़राब अनुभव देगा. इसके ठीक उलट जो व्यक्ति आपका उपयोग
करना चाहता होगा वह कभी भी आपके सामने आपकी मंशा के विपरीत बात नहीं करेगा. कभी भी
आपको कठोर शब्दों में समझाने का कार्य नहीं करेगा. कभी भी आपको असलियत से परिचित
करवाने का काम नहीं करेगा.
बस, यही
वह बिंदु होता है जहाँ आप उस व्यक्ति के हाथ की कठपुतली बन जाते हैं. यही वह क्षण
होता है जहाँ आपका उपयोग कर लिया जाता है. यही वह व्यक्ति होता है जो आपका उपयोग
करके सहजता से आपसे किनारा कर लेता है. सही, गलत का चयन आपको करना है. कौन आपका
है, कौन आपके होने का नाटक कर रहा है ये भी आपको पता करना है. कौन आपके साथ है,
कौन आपका उपयोग कर रहा है इसका आभास भी स्वयं आपको करना है. जो आपके अपने हैं,
विशुद्ध आपके अपने हैं, उनको इसका एहसास करवाने की आवश्यकता है. उनके
एहसासों-संवेदनाओं को समझने की, उनको एहमियत देने की जरूरत है. यदि आप ऐसा करने
में असमर्थ होते हैं तो आप एक बार नहीं बार-बार उपयोग किये जाते हैं, हरेक के
द्वारा उपयोग किये जाते हैं. हर बार आपको उसके प्रिय होने का एहसास करा कर आपको
ठेस पहुँचाने की कोशिश होती है. उसके इस कदम को कोई भले ही किसी रूप में स्वीकार
करे किन्तु ध्यान रखना चाहिए कि जिसके लिए आप अपेक्षाओं का कटोरा (या कहें कि चाय
का कप) बनना चाह रहे हैं वह स्वयं में कितना बड़ा है. कहीं ऐसा तो नहीं कि आप
अपेक्षाओं का/चाय का प्याला बनते जा रहे हैं और वह बस बर्बाद किये जा रहा हो. यही
बर्बादी का एहसास आपको अपने उपयोग किये जाने का एहसास करवाता है. यही एहसास आपको
बताता है कि आप हर एक के लिए चाय का कप बनते जा रहे हैं (जबकि असलियत में ऐसा होता
नहीं है), जिसे हर आने वाला एक घूँट मारकर, जूठा करके चला जा रहा है. आपको भुलाये
जा रहा है. और आप हैं कि फिर से तैयार करके, साफ़ करके किसी और के लिए अपने आपको
उपयोग करने के लिए प्रस्तुत किये जा रहे हैं.
+
(विशेष -
यह आलेख ऊपर वाले चित्र का अनुवाद नहीं है, न ही उसकी व्याख्या है.)
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