क्या
उम्र के साथ जीवन जीने का तरीका बदल देना चाहिए? क्या उम्र के बढ़ने के साथ-साथ
अपने व्यवहार में गंभीरता सी लाना अनिवार्य है? क्या उम्र बढ़ने के साथ व्यक्ति को
अपना व्यक्तित्व अति-गंभीर मूर्ति की तरह बना लेना चाहिए? ऐसे और भी सवाल हैं जो
लगभग रोज ही हमारे दिमाग में उमड़ते-घुमड़ते हैं मगर हमारी तरफ से हर बार निरुत्तर
रह जाते हैं. हमारे स्वयं के अलावा बहुत से लोगों से ऐसे सवालों के जवाब बड़े ही
निराश करने वाले मिले. बहुसंख्यक लोगों का मानना होता है कि उम्र के अनुसार
गंभीरता ओढ़ लेनी चाहिए भले ही वह जबरन ओढ़नी पड़े. भारतीय समाज में वैसे भी किसी
व्यक्ति के लिए हास-परिहास वाला, उन्मुक्त व्यवहार वाला व्यक्तित्व तभी तक मान्य
है जब तक कि उसका विवाह नहीं हो जाता है. समाज में ऐसा माना जाता है कि विवाह होने
के बाद व्यक्ति को गंभीरता ओढ़ लेनी चाहिए. उसके स्वभाव में, बातचीत में, हाव-भाव
में किसी भी तरह की उन्मुक्तता न दिखाई दे. इस स्थिति में विकास उस समय और आना चाहिए
जबकि वह अभिभावक के रूप में जाना जाने लगे, किसी पद-प्रस्थिति से जुड़ जाए. ऐसा
इसलिए कह रहे हैं क्योंकि ऐसा हमें बहुत समझाया जाता है.
हमारे
साथ तो दोनों बातें सामाजिक सोच के हिसाब से ही हुई हैं. पिता बने तो एक बेटी के,
रोजी-रोटी के लिए आजीविका का साधन बना तो अध्यापन. दोनों ही बातें समाज में ऐसी
मानी गई हैं जहाँ आपके स्वभाव में एक तरह की गंभीरता होनी ही चाहिए. यह सामाजिक
सामान्य सी अवधारणा है कि यदि बेटी का पिता है तो उसे अत्यंत नम्र, सहज, कुछ झुका
हुआ सा रहने की आवश्यकता है. इसे लेकर हम अपने सभी परिचितों में एक बात लगातार
कहते हैं कि हम अपनी बेटियों को ऐसा सशक्त, जागरूक और सक्षम बनायेंगे कि लड़के डर
के भागेंगे उन्हें देखकर. ये हँसी-मजाक का विषय नहीं होना चाहिए वरन गंभीरता से इस
पर विचार करने की आवश्यकता है. क्या बेटी का माता-पिता होना किसी अनावश्यक गंभीरता
का सूचक है? क्यों नहीं किसी बेटी का पिता समाज में उसी तरह हँस-खिलखिला सकता है
जैसे कोई युवा? इसके अलावा अध्यापन से जुड़ा होना कोई अपराध नहीं. अपने व्यक्तित्व
को कहीं कैद कर देने वाली बात नहीं. शिक्षक भी एक इन्सान है, उसे भी आम इन्सान की
तरह हँसने-खिलखिलाने का अधिकार है. उसे भी सड़क के किनारे खड़े होकर चाट खाने का
अधिकार है. उसे भी किसी मेले-प्रदर्शनी में झूले में झूलने का आनंद लेने का अधिकार
है. उसे भी किसी समारोह में ठहाका मारकर हँसने की स्वतंत्रता है.
हमारे
साथ के लोग, हमारे आसपास के परिचित लोग हम पर इन सब बातों का पहरा हम पर भी लगाने
की कोशिश करते हैं मगर हमने साफ़-साफ़ कह रखा है कि किसी गधे की तरह का बुद्धिजीवी
हमें नहीं बनना है. संसार में यही एकमात्र प्राणी है जो चौबीस घंटे अपना मुँह
लटकाए रहता है, न हँसी, न कोई हाव-भाव. ऐसा ही वे कथित बुद्धिजीवी करते हैं जो
अपने आपको इन्सान से ज्यादा बुद्धिजीवी साबित करने में लगे रहते हैं. हम तो आज भी
सड़क पर ठहाका मार कर हँसते हैं. राह चलते चिल्लाकर अपने दोस्तों को आवाज़ देते हैं.
आज भी उरई की सड़कों में टहलते हुए कभी कुल्फी का, कभी बर्फ-गोले का, कभी
गुलाबलच्छी का स्वाद लेते रहते हैं. हम आज भी किसी कार्यक्रम में मन करने पर सीटी
मारने से नहीं चूकते हैं. हमारे लिए किसी बेटी का पिता होना हमारा गौरव है और किसी
महाविद्यालय का शिक्षक होना उसकी चहारदीवारी तक सीमित है. उरई के लिए हम वही
कुमारेन्द्र हैं जो आज से चालीस-पैंतालीस साल पहले था. हमारे लिए उम्र का बढ़ना तब
तक मायने नहीं रखता जब तक कि हमारा दिल न मान ले कि उम्र बढ़ने लगी है. हाँ, हर बात
की, हर स्थिति की, हर पद की, हर उम्र की अपनी एक शालीनता है वह बनी रहनी चाहिए
इसका हम समर्थन करते हैं. इसी समर्थन के साथ हम आज भी युवा हैं और हँसी-मजाक में
अपने मित्रों से कहते हैं कि तुम लोग बढ़ती उम्र के हो गए होगे मगर हम आज भी युवा
हैं बाईस-चौबीस साल के तो वही हैं. उम्र तो मानव-जनित कैलेण्डर गिन रहा है मगर दिल
की उम्र को, उसकी जिन्दादिली को तो इन्सान की क्रियाशीलता गिनती है. हमारी
सक्रियता, हमारी जिंदादिली, हमारी क्रियाशीलता आज भी किसी युवा की उम्र को चुनौती
देती है, फिर हम उम्र के बढ़ने की चिंता क्यों करें? क्यों अपने ऊपर अनावश्यक
गंभीरता का बोझ लादें? हम ऐसे ही मस्त हैं, ऐसे ही मनमौजी हैं, हमें ऐसे ही रहने
दिया जाये, ऐसे ही स्वीकार किया जाये. हमारे लिए उम्र के बढ़ने के साथ-साथ सामाजिक
मान्यताओं के मानने का प्रतिबन्ध हटा लिया जाये.
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