06 मार्च 2019

कालखंड के विधान न मानना ही कष्ट का कारण

आसपास नजर दौड़ाओ तो परेशान लोगों की बहुतायत संख्या दिखाई पड़ती है. कोई अपनी बीमारी से परेशान है. कोई अपने परिजनों की बीमारी से परेशान है. कोई नौकरी न मिलने से परेशान हो रहा है. कोई अपने व्यवसाय में लाभ न होने को लेकर परेशान है. कोई बच्चों के विवाह के लिए परेशान है. कोई संतान न होने के कारण परेशान है. कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में परेशान लोग दिखाई दे ही जायेंगे. ऐसे परेशान लोगों का विश्लेष्णात्मक अध्ययन किया जाये तो जानकारी मिलेगी कि ऐसे लोग ज्यादा परेशान हैं जो सात्विक प्रवृत्ति के हैं, जिनका ईश्वर पर, ईश्वरीय सत्ता पर विश्वास है. जिनके दिन का एक बहुत बड़ा भाग भगवान की भक्ति में बीतता है. जिनके घूमने-फिरने का बहुत बड़ा समय धार्मिक स्थलों की यात्राओं में व्यतीत होता है. जिनकी आय का एक बहुत बड़ा हिस्सा धार्मिक कृत्यों को संपन्न करने में व्यय होता है. ऐसे परेशान लोगों का अध्ययन करने पर ज्ञात होगा कि ऐसे लोगों ने अपने जीवन में शायद ही किसी के लिए बुरा सोचा हो. शायद ही इन्होने अपने कृत्यों में कभी कुकृत्य जैसा कोई आचरण किया हो. इसके बाद भी सर्वाधिक कष्ट ऐसे लोगों के हिस्से में ही आते हैं. आखिर क्या कारण है इसका? क्या कारण हो सकता है, ऐसा होने के पीछे? 



संभव है कि इसे हँसी में निकाल दिया जाये क्योंकि इसके पीछे कोई वैज्ञानिक आधार नहीं. संभव है कि इसे नास्तिकता भरा कदम बताया जाये क्योंकि इसके पीछे किसी तरह की धार्मिकता का आधार काम नहीं करता है. इसके बाद भी हमारा व्यक्तिगत रूप से मानना है कि किसी भी व्यक्ति के कार्यों के पीछे, उसके सफल-असफल होने के पीछे, उसकी ख़ुशी-दुःख के पीछे सम्बंधित कालखंड, समय, परिस्थिति का बहुत बड़ा हाथ होता है. बिना इसके किसी भी व्यक्ति का विकास-गति प्राप्त करना संभव नहीं दिखता है. यदि एक पल को इसे सत्य मान लिया जाये तो साफ़ है कि इस कलियुग में उसी व्यक्ति को कष्ट अधिक मिलने हैं जो कलियुग के अनुसार अपने कृत्यों का सञ्चालन नहीं करेगा. जो भी व्यक्ति कलियुग के नियमों-कानूनों का अनुपालन नहीं करेगा उसे कष्ट भोगने होंगे. भगवान जैसी शक्ति यदि वाकई है तो वह हमेशा उसी को दंड देने का काम करती है जो उसके बने-बनाये विधानों का अनुपालन नहीं करता है. ऐसे में सुखी रहने के लिए व्यक्ति को कलियुग के विधानों का अनुपालन करना अनिवार्य है. यदि वह ऐसा नहीं करता है तो कष्ट का भागी बनता है.

इसे महज मजाक का विषय न माना जाये वरन अपने आसपास भी देखा जाये तो बहुत हद तक सत्यता दिखाई पड़ने लगेगी. ऐसे लोगों को बहुत कम कष्ट में देखा होगा जो किसी न किसी तरह के दंद-फंद का काम करते हैं. झूठ बोलने वालों को, भ्रष्टाचार करने वालों को, रिश्वतखोरी करने वालों को कष्ट से ज्यादा सुख भोगते देखा जाता है. आये दिन सड़क दुर्घटना की खबरें पढ़ते हैं, तमाम निर्दोषों के , मासूमों के मारे जाने की खबरें सामने आती हैं मगर शायद ही कभी एक-दो दुर्घटनाएं ऐसी सामने आती हों जिनमें कोई अत्याचारी मारा गया हो, कोई दुर्दांत मारा गया हो. ऐसे में क्या ये माना जाये कि सभी को अत्याचार करना चाहिए? सभी को भ्रष्ट हो जाना चाहिए? सभी को कुकृत्य करने शुरू कर देने चाहिए? एक पल को इसके बारे में हाँ कहना अवश्य ही अचंभित करेगा किन्तु यदि वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा जाये तो जब तक संतृप्तता की स्थिति नहीं आती तब तक सम्बंधित विषय में प्रक्रिया चलती रहती है. कुछ ऐसा ही समाज में अपराधों को लेकर हो रहा है. जब तक समाज में कुछ बुरे लोग होंगे, कुछ भले लोग होंगे तब तक अपराध की प्रक्रिया चलती रहेगी. या तो समाज में सभी लोग भले बन जाएँ या फिर सभी लोग बुरे बन जाएँ तो संतृप्तता की स्थिति आने से सुधार दिखाई देने लगेगा. ऐसा भी नहीं कि बिना हत्या किये किसी के काम न बनेंगे. ऐसा भी नहीं कि यदि रिश्वत नहीं ली जाएगी तो काम नहीं बनेगा. यह भी नहीं कि अपराध नहीं किया जायेगा तो समाज नहीं चलेगा. यह सब होगा मगर जब शक्ति-संतुलन की स्थिति समाज में बनती है तो अपराध कम होते हैं या कहें कि न के बराबर होते हैं. इसी शक्ति-संतुलन की आज आवश्यकता है और वह तभी हो सकेगा जब कि इन्सान खुद को भगवान भक्ति से बाहर निकाले. ईश्वरीय शक्ति यदि एक तरफ इन्सान को ताकत देती है तो उसे कमजोर भी बनाती है. यही कमजोरी किसी भी भले इन्सान को हमेशा परेशानी में रखती है, दुखी रखती है.

ऐसा कहने का अर्थ कदापि यह नहीं कि इन्सान सिर्फ और सिर्फ अत्याचार करने पे उतर आये, पूरी तरह से कुकृत्य करने लगे. ऐसा कहने का आशय महज इतना है कि इंसानों को अपने समय, शक्ति, ऊर्जा को अनावश्यक रूप से कथित भगवन-भक्ति में खर्च करके सार्थक कार्यों की तरफ लगाना चाहिए. ऐसा इसलिए क्योंकि ईश्वर भी इन्सान की बनाई कृति है जो उसने अपने गुण-दोषों के विवेचन के लिए स्थापित की है. यहाँ ईश्वर के सम्बन्ध में एक बात ध्यान रखना चाहिए कि भगवान की भक्ति करने के द्वारा इन्सान सिर्फ वही चीजें माँगता है जिनको पूरा करना कहीं न कहीं उसी इन्सान के हाथों में होता है. कोई भी इन्सान अपनी परेशानियाँ का निस्तारण चाहता है. वह परीक्षा में पास होना चाहता है, नौकरी चाहता है, संतान चाहता है, बीमारी से मुक्ति चाहता है, व्यापार में लाभ चाहता है, विवाह चाहता है, तरक्की चाहता है. इनके लिए वह प्रयास भी करता रहता है और भगवान की भक्ति भी करता रहता है. ऐसे में उसकी कामना पूरी होने का श्रेय वह भगवान को देता हुआ उसके प्रति कृतज्ञ रहता है. क्या कभी किसी इन्सान ने अपने चार हाथ हो जाने की कामना भगवान से की है? क्या किसी इन्सान ने भरी दोपहरी में रात हो जाने की माँग भगवान से की है? क्या किसी इन्सान ने गर्मी के मौसम में सर्दी की आकांक्षा भगवान से की है? सार्वजनिक रूप से ऐसा कोई नहीं दिखता, पर एक पल को ऐसा माँगा भी जाये भगवान से तो क्या वह पूरा हो जायेगा? कितनी भी कठिन तपस्या हो, यज्ञ-हवन किये जाएँ मगर ऐसा हो पाना संभव नहीं क्योंकि यह एक तरह की प्राकृतिक प्रक्रिया है. इसी तरह की प्राकृतिक प्रक्रिया से भटकने के कारण इन्सान दुखों का अनुभव करता है. ऐसे में इन्सान को अपने कृत्यों पर भरोसा करते हुए आगे बढ़ने कि आवश्यकता है. भगवान भक्ति कलियुग में इन्सान को राक्षस बनाएगी, दुष्ट साबित करेगी, अत्याचारी साबित करेगी. ऐसा इसलिए क्योंकि ऐसा करते रहने के कारण इन्सान अपने कार्यों के प्रति सजग-सचेत-सक्रिय नहीं रहता है.
+
(यह आलेख पूर्वाग्रही, आँख बंद करके भगवान भक्ति करने वाले न पढ़ें.)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें