शहर के
किसी कोने में होने वाली किसी भी तरह की गड़बड़ी को जैसे ही कैमरे में लेने की कोशिश
की जाती है वैसे ही आसपास वालों की निगाह में पत्रकारिता से जुड़ा होने का भाव जाग
जाता है. जो चंद लोग जानते-पहचानते हैं वे तो मुस्कुराते हुए किनारे से, अगल-बगल
से निकल जाते हैं और जो नहीं पहचानते हैं उनके लिए कैमरे से की जाने वाली कारीगरी
सिवाय पत्रकारिता के कुछ और नहीं होती है. ये एक सजग सोच कही जा सकती है किसी भी
व्यक्ति की कि वह समाज में हो रही किसी भी तरह की अव्यवस्था, अनियमितता को उजागर
करने के लिए पत्रकारिता को, पत्रकार को सक्षम समझता है. इस सजग, सकारात्मक सोच के
साथ-साथ एक नकारात्मकता भी चिपकी होती है और वह होती है उस फोटो से की जाने वाली
कमाई को लेकर. ऐसा हमारा स्वयं का व्यक्तिगत अनुभव रहा है, एक बार का नहीं अनेक
बार का, जबकि ऐसी किसी भी स्थिति की फोटो निकालते समय आसपास के लोगों के कई सवालों
से जूझना पड़ा, कई तरह के विचारों को जानने-सुनने का मौका मिला. ऐसा एक हमारे शहर
का हाल नहीं है वरन बहुतायत में ऐसा होते दिख जाता है. ट्रेन में, बस में, बाजार
में, कार्यालय में, स्कूल में, विश्वविद्यालय में ऐसे मंजर आसानी से आपके साथ खड़े
हो जाते हैं.
अभी इसी
माह ऐसे कई बिंदु आँखों के सामने से गुजरे. हर हाथ में चिपके मोबाइल के कारण ऐसी
किसी भी स्थिति का फोटो निकालना आसान हो जाता है. कुछ दिनों पहले सोशल मीडिया के
whatsapp ग्रुप से जुड़ना हुआ जो हमारे इंटरमीडिएट के साथियों द्वारा बनाया गया. उरई
के राजकीय इंटर कॉलेज में पढ़े साथियों का एकसाथ आना सुखद अनुभूति सा महसूस हुआ.
दिमाग में आया कि सन 1990
के बाद से कॉलेज को छोड़कर जा चुके साथियों के लिए अपने कॉलेज के आज
के चित्र भेजे जाएँ. ऐसा सोचकर कॉलेज की पुरानी इमारत की तरफ जाना हुआ. अंग्रेजों
के समय की बनी इस इमारत के साथ-साथ उससे लगी हुई दूसरी इमारत में भी हम लोगों को
पढ़ने का अवसर मिला था. दूसरी इमारत सन 1990 से कुछ समय पहले
ही बनाई गई थी. इस समय पुरानी इमारत पूरी तरह से परित्यक्त है. उसका बहुत बड़ा भाग
गिर चुका है और बहुत सा हिस्सा गिरने की स्थिति में है. इस इमारत के मुख्य द्वार
से लगी बगिया भी उजड़ चुकी है. पुरानी जर्जर इमारत और उजड़ी हुई बगिया अब नशेबाजों
की शरणगाह बने हुए हैं. उस दिन फोटो खींचने के उद्देश्य से अन्दर जाने पर दो-चार
नशेबाजों से सामना हुआ. मोबाइल से फोटो निकालते देख उनमें से कुछ तो चल दिए, एक-दो
जो वहां जमे रहे उन्होंने अपनी शंका का समाधान किया और हमारे बताते ही कि हम
मीडिया से नहीं हैं, वे निश्चिन्त भाव से अपने काम में लग गए.
कॉलेज
कैंपस की जर्जरता का अपने लिए लाभ उठा रहे उन नशेबाजों ने तो कुछ नहीं कहा मगर उरई
के पुराने भवन टाउन हॉल में लगे लैम्पों की दुर्दशा की, शहर भर में फुटपाथ पर
पार्किंग बना दिए जाने की, बैंक, मॉल, तहसील आदि के सामने जबरन पार्किंग बना दिए
जाने की, बाजार में रखे डिवाइडर्स के अस्त-व्यस्त बने रहने के फोटो के दौरान भी
ऐसी स्थिति से गुजरना हुआ, जबकि लोगों की नकारात्मकता का आभास हुआ. आसपास वालों ने
जानकारी लेनी चाही तो पार्किंग वालों ने भी आपत्ति दर्ज की. आम नागरिकों का मानना
था कि इस तरह की फोटो खींचने के बाद सुधार तो कुछ होना नहीं है, मीडिया के नाम पर
उगाही कर ली जाएगी. कुछ लोगों ने सीधे हमसे बात की और कुछ आपस में बतियाते रहे. उन
सबका सार यही था कि कमीशन न मिला होगा, इस बार का हिस्सा न पहुँचा होगा, ठेकेदार
से, नगर पालिका से कुछ अनबन हो गई होगी, कोई काम न बना होगा आदि-आदि.
मीडिया के
प्रति इस तरह की नकारात्मकता उभरने के पीछे के अपने कारण हैं, उन पर चर्चा फिर
कभी. मूल बात ये कि समाज के लोग अव्यवस्थाओं से अनियमितताओं के इतने आदी हो चुके
हैं कि वे स्वयं इसमें बदलाव के लिए आगे बढ़ना ही नहीं चाहते. जो है, जैसा है, सब
चलता है, ठीक है आदि की मनोदशा में वे अपने आपको उन्हीं अव्यवस्थाओं, अनियमितताओं
के सहारे आगे ले जा रहे हैं. यही कारण है कि अब किसी मुद्दे पर जन-आन्दोलन जैसी
स्थिति नहीं दिखती है. इसी कारण से सम्बंधित पक्ष भी एकतरफा काम करते हुए
कार्यवाही करता है. बहरहाल, सुधार होगा या नहीं, बदलाव आएगा या नहीं, लोग सुधरेंगे
या नहीं ये बाद की बातें हैं पर हम तो न फोटो खींचने से रुकेंगे और न ही अपनी बात
कहने से.
Sahi hai
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