22 फ़रवरी 2019

मातृभाषा के प्रति बांग्लादेश के संघर्ष, समर्पण का परिणाम है मातृभाषा दिवस


यूनेस्को की घोषणा के बाद प्रतिवर्ष 21 फरवरी को अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाया जाता है. इसको मनाये जाने का उद्देश्य भाषाओं और भाषाई विविधता को बढ़ावा देना है. देखा जाये तो मातृभाषा व्यक्ति के संस्कारों की संवाहक है. मातृभाषा के बिना किसी भी देश की संस्कृति की कल्पना बेमानी है. यही हमें राष्ट्रीयता से जोड़ती है और देश प्रेम को उत्प्रेरित करती है. मातृभाषा वह भाषा नहीं जो किसी व्यक्ति की माँ बोलती है बल्कि मातृभाषा वह है जो किसी इन्सान को सबसे पहले सोचने-समझने और व्यवहार की अनौपचारिक शिक्षा और समझ देती है. पूर्व राष्ट्रपति और प्रसिद्द वैज्ञानिक कलाम साहब ने एक बार कहा था कि उनके वैज्ञानिक बनने के पीछे गणित, विज्ञान की पढ़ाई अपनी मातृभाषा में करना रहा है. कोई भी मातृभाषा उस माँ की तरह होती है, जो अपने आँचल में अपने बच्चे को संस्कार देती है, उसका लालन-पालन करती है, उसे शिक्षा देती है.


हिंदीभाषियों में मातृभाषा को लेकर या कहें कि हिन्दी को लेकर अलग ही भाव रहता है. उनमें अंग्रेजी सीखने की ललक बहुत गहराई से देखने को मिलती है. हिन्दीभाषी इस कारण से आपसी बातचीत में भी अपनी मातृभाषा के बजाय अंग्रेजी में बात करना पसंद करते हैं. कुछ इसी तरह का बर्ताव क्षेत्रीय भाषाओं, बोलियों को लेकर भी किया जाता है. बुन्देलखण्ड क्षेत्र से सम्बंधित होने के कारण यहाँ के बहुसंख्यक निवासियों में ही बुन्देली के प्रति संकोच का, एक तरह की दीनता का भाव उमड़ते देखा है. यहाँ के बहुत से नागरिक बुन्देली बोलने में, लिखने में न केवल संकोच करते हैं वरन ऐसा करने वालों को पिछड़ा, गँवार समझने लगते हैं. यहाँ समझना चाहिए कि कोई भी मातृभाषा उस व्यक्ति की पहचान होती है. आज सम्पूर्ण विश्व जिस मातृभाषा दिवस को मना रहा है, उसके पीछे भी अपनी मातृभाषा के प्रति समर्पण, संवेदना ही है. बांग्लादेश के निवासियों ने अपनी मातृभाषा के प्रति अपनी जिम्मेवारी समझी और उसके लिए संघर्ष किया. 

अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाये जाने के पीछे बांग्लादेश का अपनी भाषा के प्रति समर्पण और उसके लिए संघर्ष प्रमुख है. सन 1948 में पाकिस्तान सरकार ने उर्दू को राष्ट्रभाषा का दर्ज़ा दिया. वर्तमान बांग्लादेश को उस समय पूर्वी पाकिस्तान के रूप में जाना जाता था. 21 फरवरी 1952 को ढाका विश्विद्यालय के विद्यार्थियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं ने संयुक्त रूप से पाकिस्तान सरकार के इस कदम का कड़ा विरोध करते हुए बांग्ला भाषा को आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता देने के लिए प्रदर्शन किया. इस प्रदर्शन को दबाने के लिए पुलिस ने बड़ी बेरहमी दिखाते हुए गोलियाँ बरसाना शुरू कर दिया. इसमें अनेक विद्यार्थी मारे गए. इसके बाद भी विरोध प्रदर्शन बंद न हुए. अंततः 29 फरवरी 1956 को पाकिस्तान सरकार को बांग्ला भाषा को आधिकारिक दर्ज़ा देना पड़ा. बांग्लादेश की मातृभाषा की विजय हुई. परिणामतः यूनेस्को ने 1999 में 1952 के प्रदर्शन में शहीद हुए युवाओं की स्मृति में 21 फरवरी को अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाये जाने की घोषणा की. पहला अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस 21 फरवरी 2000 को मनाया गया.

बांग्लादेश का यह प्रयास सराहनीय ही नहीं वरन अनुकरणीय है. यहाँ भारत में एक तरफ हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाये जाने के अभियान चलते हैं, हिन्दी दिवस, सप्ताह, पखवाड़े जैसे आयोजन होते हैं किन्तु वे सबके सब जमीनी स्तर पर उतर नहीं पाते हैं. उन सभी को जो हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाये जाने के लिए आंदोलित रहते हैं, उन्हें बांग्लादेश के आन्दोलन से, संघर्ष से सीखने की आवश्यकता है.  

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें