मृत्यु
हमेशा से ही दार्शनिक विचारों का केंद्र-बिंदु रही है. अनादिकाल से, जबसे जन्म की
प्रक्रिया प्रकृति में आई तभी से मृत्यु भी एक सार्वभौमिक प्रक्रिया उसी के साथ
जुड़कर सामने आई है. ये एक सार्वभौमिक सत्य है कि जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु
सुनिश्चित है. इसके बाद भी हर बार किसी न किसी रूप में मृत्यु पर दार्शनिक विचारों
का प्रस्फुटन होता रहता है. समझ से परे है कि यदि जन्म और मृत्यु एक प्राकृतिक
अवस्था हैं तो फिर इनके होने पर कैसा सुख, कैसा दुःख? इनके होने पर कैसा आयोजन,
कैसा शोक? और यदि जन्म पर आयोजन है, ख़ुशी है, सुख है तो निश्चित ही मृत्यु पर शोक
है, दुःख है. इसी सन्दर्भ में कुछ प्रचलित मान्यताओं का भी स्मरण रखना होगा. चाहे
सजीव हो या फिर निर्जीव, ये माना जाता है कि इन्सान को इनमें से किसी में जीवन
देने की शक्ति नहीं है. किसी भी तत्त्व में जीवन आने का काम सिर्फ और सिर्फ
प्रकृति का है. इसी कारण जीव-जगत की उत्पत्ति का श्रेय भले ही इन्सान ले ले मगर
उसके पीछे कहीं न कहीं प्रकृति शामिल रहती है.
इसी
बिंदु पर आकर यदि माना जाये कि जन्म और मृत्यु में प्रकृति ही अपनी भूमिका निभाती
है तो फिर लोगों में किसी की मृत्यु को लेकर इतना शोक, इतना दुःख करने की आवश्यकता
क्या होती है? यहाँ यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि समाज में भले ही जन्म-मरण को
प्रकृति प्रदत्त माना गया हो, भले ही जन्म-मरण को एक प्रक्रिया के रूप में स्वीकार
किया गया हो, इसके बाद भी प्रत्येक जीव की एक आयु का निर्धारण माना गया है.
जीव-जंतु-वनस्पति सभी को सजीव मानते हुए उनकी एक निर्धारित आयु का निर्धारण बहुत
पहले किया जा चुका है. यदि ऐसा भी है और यह सत्य है तब भी किसी की मृत्यु पर दुःख
प्रकट करने की आवश्यकता उस समय तक कदापि नहीं होती है जबकि वह अपनी निश्चित आयु को
पूरा करके इस संसार से विदा हो रहा होता है. कोई ऐसा व्यक्ति, जो अपनी समस्त
जिम्मेवारियों को, अपने समस्त दायित्वों को पूरा करके इस असार संसार से विदा ले
रहा है तो उसे विदाई देने में किस बात का दुःख? अपने एक कार्यक्रम के दौरान अपने
देश की एक ऐसी जनजाति से परिचय हुआ जहाँ पर लोगों की मृत्यु पर शोक नहीं मानते
बल्कि जश्न होता है. ढोल-नगाड़ों के साथ अंतिम विदाई होती है. कोई रोना-पीटना नहीं,
कोई आँसू नहीं. ऐसा इसलिए क्योंकि उस जनजाति में सभी सदस्यों की मृत्यु
वृद्धावस्था में हुई. उनका कहना है कि उनके यहाँ आज तक कभी कोई बालक, कभी कोई युवा
मृत्यु का शिकार नहीं हुआ. ऐसी मृत्यु निश्चित ही दुख की नहीं वरन जश्न की अधिकारी
है.
ये सोचने
वाली बात है कि एक तरफ हम सभी कामना करते हैं जन्म-मरण के इस चक्र से मुक्ति पाने
की. बार-बार जन्म लेकर इस संसार में आने के बजाय मोक्ष पाने की. इसके बाद भी
कल्पना करते हैं कि हमारा परिजन किसी न किसी रूप में हमारे परिवार में ही जन्म ले.
ऐसी सोच के बाद भी हम अपने परिजन की मृत्यु पर दुःख व्यक्त करते हैं. ऐसा
विरोधाभास शायद ही कहीं और देखने को मिलता हो कि एक तरफ मोक्ष प्राप्ति की कामना
और दूसरी तरफ मृत्यु पर शोक. हाँ, उस मृत्यु पर अवश्य ही शोक व्यक्त करना चाहिए
जिसने अपनी आयु को पूरा न किया हो. जिसने अभी इस दुनिया में अपनी निर्धारित आयु का
कोई एक छोटा सा अंश भी पूरा न किया हो. जिसने अभी कर्तव्यों-दायित्वों को
समझा-जाना न हो. ऐसी मृत्यु निश्चित ही शोक की अधिकारी है. कहा नहीं जा सकता कि वह
जीव जो इस अल्पायु में अपने मानव शरीर के खांचे से मुक्त हो रहा है, वह मोक्ष को
प्रकट होगा ही. ऐसा इसलिए क्योंकि मोक्ष प्राप्ति के जो मार्ग सुझाये गए हैं वे
अल्पायु में क्या आज संभव हैं? बहरहाल, किसी इन्सान का मोक्ष मिलना, उसका इस असार
संसार से मुक्त हो जाना, पुनः जन्म-मरण के चक्र में फँस जाना नितांत धार्मिक बातें
हैं, कहीं न कहीं दार्शनिक तत्त्व से ओत-प्रोत हैं. ऐसे में किसी इन्सान के जाने
से दुःख हो या सुख ये तो उस व्यक्ति की अवस्था पर निर्भर करता है किन्तु यह सत्य
है कि किसी भी इन्सान के जाने से, किसी भी जीव के साथ छोड़ने से उसके साथ वालों को
दुःख होता ही है. इसी दुःख के साये में दुनिया आगे की राह बढ़ती रहती है, एक दुःख
के साथ नए जीवन की आस बुनती रहती है.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें