परीक्षाओं
का मौसम आया हुआ है. हाईस्कूल और इंटरमीडिएट के बच्चों की विभिन्न बोर्ड से
सम्बंधित परीक्षाएं संचालित हैं. कुछ दिनों में यूनिवर्सिटी से सम्बंधित परीक्षाएं
भी आरम्भ हो जाएँगी. इन तमाम सारी परीक्षाओं में कई विषय ऐसे होते हैं, जिनमें
प्रयोगात्मक परीक्षाएं भी संपन्न होती हैं. विगत कई वर्षों से अध्यापन क्षेत्र से
जुड़े होने के कारण परीक्षाओं के मौसम में आते जा रहे बदलाव को निरन्तर बहुत नजदीक
से देखने का मौका मिला है. किसी समय में हमारे शहर में गिने-चुने विद्यालय हुआ
करते थे. उनमें भी इक्का-दुक्का हुआ करते थे जिनकी अपनी प्रतिष्ठा थी. हाईस्कूल,
इंटर की परीक्षाओं के लिए कुछ विद्यालय तो मानक रूप में सबके सामने थे. वहाँ की
पढ़ाई, वहाँ परीक्षाओं के दौरान की पारदर्शिता, शुचिता का अपना ही स्वरूप था.
समय
बदलता रहा. सरकारों की नीतियां बदलती रहीं. स्व-वित्त प्रणाली ने निजी विद्यालयों,
महाविद्यालयों को जैसे कुकुरमुत्तों की तरह उगा दिया. गली-गली में विद्यालय खुल गए
हैं, खेतों-खेतों में महाविद्यालय खुले हुए हैं. जहाँ पहले कम शैक्षिक संस्थानों
के होने के बाद भी अध्ययन में गुणवत्ता देखने को मिलती थी वहीं अब इसी में सबसे
ज्यादा गिरावट दिखाई दे रही है. और ऐसा तब हो रहा है जबकि इन संस्थानों की संख्या
बहुत अधिक हो गई है. शैक्षिक संस्थानों की बाढ़ के बीच आती शैक्षिक गिरावट के
साथ-साथ अब अभिभावकों में, शिक्षकों में, विद्यार्थियों में भी गिरावट देखने को
मिली है. यदि कहें कि शिक्षा जगत के जितने भी अंग-प्रत्यंग हैं वे सबके सब गिरावट
का शिकार हुए हैं तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. किसी भी संस्थान में प्रवेश
के मानक अब वहाँ नक़ल करवाने-करने में मिलने वाली सुविधा बन गई है. प्रयोगात्मक
परीक्षाओं में भी अधिकाधिक अंक दिलवाने को किसी भी संस्था का आदर्श रूप माना जाने
लगा है. किसी समय में अभिभावकों द्वारा अपने पाल्यों के प्रति इस तरह का भाव देखने
को नहीं मिलता था मगर अब उनमें भी इस तरह का भाव दिखाई देता है. परीक्षा आरम्भ
होने से लेकर समापन तक कदम-कदम पर उसके लिए अधिकाधिक अंकों की जुगाड़ में लिप्त
रहना साफतौर पर दिखाई देता है. परीक्षाओं के दौरान नक़ल की व्यवस्था, परीक्षा
पश्चात् मूल्यांकन के दौरान भी अधिकाधिक अंक प्राप्त करने की जुगाड़ खोजना अब बहुतायत
अभिभावकों का जैसे स्वभाव बनता जा रहा है.
संभव है
कि ऐसा सभी जगह न हो मगर आज अधिकाधिक जगहों पर ऐसा ही हो रहा है. ऐसे में सोचा जा
सकता है कि किसी भी जगह पर वहाँ की शिक्षा व्यवस्था कैसे विकास करेगी? जहाँ
अभिभावकों में, शिक्षकों में, विद्यार्थियों में इस तरह की मानसिकता पनप रही हो
वहाँ वे शिक्षा के द्वारा, अध्ययन-अध्यापन के द्वारा खुद को सफलता के मार्ग पर
कैसे ले जा सकते हैं? शायद यही कारण है कि अब शहरों में विज्ञापनों के बीच डिग्री
के, शिक्षा संस्थानों के विज्ञापन दिखाई पड़ते हैं जो नौकरी देने की, रोजगार
दिलवाने की बात करते हैं. कोई भी शैक्षिक संस्थान संस्कारों की, सभ्यता की, शिक्षा
की बात नहीं करता है. रोजगारपरक शिक्षा आज की आवश्यकता भले ही हो गई हो मगर जब
किसी भी शिक्षा का, किसी भी डिग्री का एकमात्र उद्देश्य सिर्फ नौकरी लेना ही हो
जाये तो उसके लिए फिर बाजारवाद का सिद्धांत ही लागू होगा. वहाँ सिर्फ बाजार के
नियम ही लागू होंगे.
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